Swami Ramkrishna Paramhans: जानिए आखिर क्यों किसी को कोई मंत्र नहीं देते थे काली के ये महान भक्त, जीवन का ये सत्य खोल देगा आंखें

Swami Ramkrishna Paramhans: स्वामी रामकृष्ण परमहंस की अनूठी थी कहानी। मां काली की भक्ति में रहते थे लीन। अनुयायियों को देते थे गृहस्थी न छोड़ने की सलाह। भक्तों से कहते कौन किसका गुरु। अनुयायियों का मन और श्रद्धा देखकर देते थे स्वप्न में ही मंत्र दीक्षा। भक्तों से कहते थे संसार में रहकर ही करो साधना।

Swami Ramkrishna Paramhans

मां काली के परमभक्त स्वामी रामकृष्ण परमहंस

तस्वीर साभार : Times Now Digital
मुख्य बातें
  • मां काली के परमभक्त थे स्वामी रामकृष्ण परमहंस
  • अनुयायियों को देते थे गृहस्थी न छोड़ने की सलाह
  • स्वप्न में किसी किसी अनुयायी को देते थे मंत्र दीक्षा

Swami Ramkrishna Paramhans: स्वामी रामकृष्ण परमहंस कभी भी किसी के कान में मंत्र कहकर उसके गुरु नहीं बनते थे। वे उपदेश करते थे, ईश्वर प्राप्ति का सरल मार्ग बतलाते थे, पर किसी को शिष्य बनाकर गुरु कहलाना उनको पसंद न था। अगर कोई उनको “गुरु” कहता तो वे कहते−“कौन किसका गुरु है? एक ईश्वर ही सबका गुरु है। चंदा मामा जैसे तुम्हारा मामा है, वैसे ही मेरा भी मामा है।”

सच्चे गुरु थे स्वामी रामकृष्ण परमहंस

स्वामी रामकृष्ण परमहंस किसी को बहला फुसलाकर अपने शिष्यों का दल तैयार करने की जरा भी इच्छा नहीं रखते थे। जो अपने मन से आकर्षित होकर अपने जीवन को सार्थक बनाने के उद्देश्य से निकट आता उसके कल्याण की चेष्टा वे सदैव करते रहते थे। वास्तव में महापुरुषाें का सच्चे का लक्षण भी यही है कि वह परोक्षरूप से ही अपने निकटवर्ती और दूरवर्ती सभी व्यक्तियों को अत्मोन्नति के मार्ग में अग्रसर होने में सहायता देता रहे। परमहंस देव यद्यपि प्रत्यक्ष में समाज सुधार या देशोद्वार का कोई खास आंदोलन या योजना नहीं करते थे, पर अंतरंग रूप से वे एेसी शक्तियों को प्रेरित करते रहते थे, जिससे प्रभावित होकर अनेक व्यक्ति कार्य क्षेत्र में आ गए और उन्होंने देश और समाज के पुनर्निमाण में महत्वपूर्ण योगदान दियाा।

स्वप्न में देते थे गुरुमंत्र

जिसकी जैसी मनोवृत्ति होती उसे वे वैसा ही मार्ग दर्शन कराते थे, इसलिए उनके मनोभाव को समझना अति कठिन था। अनेक शिष्यों को उनके द्वारा स्वप्न में गुरु मंत्र प्राप्त हुआ था।

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गृहस्थी का बताया सही उपयोग

रामकृष्ण परमहंस अपने शिष्यों से संसार त्याग करने को नहीं कहते थे। वे कहा करते थे−“संसार को छोड़कर कहां जाओगे? गृहस्थ को एक किला समझना चाहिए। किले में रहकर शत्रु से युद्ध करना सहज होता है, क्योंकि उसमें भाेजन और गोला बारूद भरकर इकट्ठा किया होता है। पर यदि खुले मैदान में युद्ध करना हो तो वह ज्यादा समय नहीं चल सकता। इसलिए संसार में रहकर ही सांसारिक कार्य चार आना भर और पारमार्थिक कार्य बारह आना भर करके ईश्वराधन करना चाहिए। संसार के उपर जब तक पूरा वैराग्य स्वतः उत्पन्न न हो जाए तब तक उसका त्याग नहीं करना चाहिए अन्यथा तुम्हारी वही गति होगी जैसी एक कोपीन के लिए उस साधु की हुई थी जो चूहों से कोपीन को बचाने के लिए सर्च त्यागी से फिर पूरा संसारी बन गया था।”

(डिस्क्लेमर: यह पाठ्य सामग्री आम धारणाओं और इंटरनेट पर मौजूद सामग्री के आधार पर लिखी गई है। टाइम्स नाउ नवभारत इसकी पुष्टि नहीं करता है।)

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