Longest Ghazal: ये है उर्दू की सबसे बड़ी ग़ज़ल, मिसरा ही है पूरे पन्ने भर का, एक-एक लाइन पढ़ने में फूल जाएगी सांस

Longest Ghazal: जरा मौसम तो बदला है मगर पेड़ों की शाखों पर नए पत्तों के आने में अभी कुछ दिन लगेंगे, ये केवल एक मिसरा है जावेद अख्तर के लिखे शेर का, है न लंबा? जावेद साहब को इतने लंबे मिसरे वाले शेर लिखने की प्रेरणा मिली अपने दादा मुज्तर खैराबादी की एक ऐसी गजल से जिसका एक-एक मिसरा पूरे-पूरे पन्ने का है। आइए पढ़ते हैं ये नायाब कृति।

longest ghazal of world

longest ghazal of world ( दुनिया की सबसे लंबी गजल)

Longest Ghazal: न किसी की आंख का नूर हूं न किसी के दिल का करार हूं, किसी काम में जो न आ सके मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूं। फिल्म लालकिला में मो. रफी का गाई हुई ये गजल मुज्तर खैराबादी ने लिखी है। मुज्तर खैराबादी का एक लाइन में परिचय दें तो कहेंगे कि ये मशहूर शायर और गीतकार जावेद अख्तर के दादा हैं। ये19वीं शताब्दी के ये बड़े शायर हुए। सीतापुर, उत्तर प्रदेश की पैदाइश मुज्तर साहब अमीर मीनाई के शागिर्द थे। इनकी शानदार रचनाओं की बात तो होती रहती है, लेकिन आज हम जानेंगे इनकी एक ऐसी गजल के बारे में जिसका एक मिसरा तरीके से पढ़ दें तो सांस फूल जाए। इस लंबी मिसरों वाली गजल का शायद पूरे दुनिया में कोई सानी न होगा। बहर-ए-तवील में लिखी गई ये गजल पढ़ने पर झरने जैसी बहती है, तो आइए पढ़ते हैं अदब की दुनिया के सबसे आश्चर्यजनक कारनामे को।

पहला मिसरा

उसे क्यूं हमने दिया दिल, जो है बे-मेहरी में कामिल, जिसे आ’दत है जफा की, जिसे चिढ़ मेहर-ओ-वफा की, जिसे आता नहीं आना, गम-ओ-हसरत का मिटाना, जो सितम में है यगाना, जिसे कहता है जमाना, बुत-ए-बे-मेहर-ओ-दगा-बाज, जफ़ा-पेशा फुसूं-साज, सितम-खाना बर-अन्दाज, गजब जिसका हर इक नाज, नजर फित्ना मिजा तीर, बला जुल्फ-ए-गिरह-गीर, गम-ओ-रंज का बानी, कलक-ओ-दर्द का मूजिब, सितम-ओ-जौर का उस्ताद, जफा कारी में माहिर, जो सितम-केश-ओ-सितमगर, जो सितम पेशा है दिलबर, जिसे आती नहीं उलफत, जो समझता नहीं चाहत, जो तसल्ली को न समझे, जो तशफ्फी को न जाने, जो करे कौल ना पूरा, करे हर काम अधूरा, यही दिन रात तसव्वुर है कि नाहक उसे चाहा, जो न आए न बुलाए, न कभी पास बिठाए, न रुख-ए-साफ दिखाए, न कोई बात सुनाए, न लगी दिल की बुझाए, न कली दिल की खिलाए, न गम-ओ-रंज घटाए, न रह-ओ-रस्म बढ़ाए, जो कहो कुछ तो खफा हो, कहे शिकवे की जरूरत जो यही है तो न चाहो, जो न चाहोगे तो क्या है, न निभाओगे तो क्या है, बहुत इतराओ न दिल देखे, ये किस काम का दिल है, गम-ओ-अंदोह का मारा, अभी चाहूं तो मैं रख दूं इसे तलवों से मसल कर, अभी मुंह देखते रह जाओ कि हैं! उनको हवा क्या कि उन्होंने मेरा दिल ले के मेरे हाथ से खोया।

दूसरा मिसरा

बस इसी ध्यान में हम थे कि हुई पांव की आहट, नजर उठी तो ये देखा कि चला आता है वो जोहरा-जबीं, माह-ए-मुबीं, तुर्फा-हसीं, परदा-नशीं, लो’बत-ए-चीन, दुरर-ए-समीं, दिल का मकीं, दुश्मन-ए-दीं, साथ मगर कोई नहीं, धक से हुआ दिल कि ये इस वक्त कहां, उसे जो पूछा कि पता खैर तो है, क्यूं इधर आया, तो जवाब उसने दिया हंस के, कि यूंही, तुझे क्या काम कि तू पूछ रहा है, कोई काजी है कि मुफ्ती, तिरा क्या आता है देना, जो मुझे टोके वो तू कौन, तिरा क्या है इजारा, ये कहा और मिरे पास ही यूं बैठ गया दाब के जानूं, बस इधर देख उधर देख, मिरे दिल को टटोला, पर वहां दिल का पता कब था जो मिलता उसे, नाचार कहा क्यूं जी! कोई और भी दिल है, हमें हाजत है जलाने की, दिखाने की, सताने की, कढ़ाने की, मिटाने की, अगर दो तो बड़ा काम करो, सुन के ये बात उससे कहा मैंने कि कुछ खैर तो है, एक ही दिल था सो वो तू ले ही गया, दो भी कहीं होते हैं दुनिया में किसी के जो तू लेने को है आया, तो वो बोला जी जाओ, जरा तुम जी मैं तो शरमाओ, भला हुक्म उठाया कि मेरी बात ही काटी, कहीं देते हैं जवाब ऐसा टका सा, अरे तौबा अरे तौबा, चलो बैठे रहो, बातें न बनाओ, तुम इसी मुंह से ये कहते थे, तुम्हें हम से मुहब्बत है, हटो जाओ मुहब्बत का भला नाम डुबोया।

तीसरा मिसरा

कभी उनको जो सुनाया गम-ए-दिल, हंस के वो बोले कि बड़े झूटे हो, तौबा, वो सुनाते हो कहानी कि यकीन जिस पे न आए, वो बयान करते हो किस्सा जो जरा दिल को न भाए, तुम इसे छोड़ दो, अच्छी नहीं ये बात कि गड़ गड़ के सुनाते, हो फसाना अभी दस और सुनें इसको, तो क्या जी में कहें, तुम बड़े वो हो, खुदा तुमसे बचाए, चलो जाओ हमें नींद आयी है हम सोएंगे, चूल्हे में गईं आपकी बातें, मिरि नींद उड़ गई सुन कर, मुझे आने लगे चक्कर, मिरा दिल हो गया मुज्तर, नहीं सुनते कि हुआ क्या, सब ही सुनते हैं कहानी, मगर ऐसा भी गजब क्या, कि ना सर है ना कहीं पैर, वही हांक दी जो आ गई जी में, तुम्हें लाजिम नहीं ऐसा, जरा देखो, इसी दुनिया में बहुत लोग हसीनों पे फिदा हैं, उन्हें क्या कह नहीं आता है, वो क्या कुछ नहीं कहते हैं, मगर यूं नहीं कहते, कि अलल-टप जो हुई जिद तो हुई जिद, जो लगी हट तो लगी हट, जो बंधी धुन तो बंधी धुन, न गम-ए-दिल शिकनी है न सर-ए-कम सुखनी है, जो ठनी है तो ठनी है, कहीं इन बातों में तुम खाओगे धोखा, कहीं तुम खाओगे मुंह की, न मिलेगा कोई समरा, तुम्हें सब लोग कहेंगे, ये वही है जिसे जब्त का यारा नहीं, खामोशी गवारा नहीं, जब होगी ये तश्हीर, तो हो जाओगे हल्के, न कहेगा कोई राज अपना, कि ऐसा न हो कह दो, जो बनी बात भी बिगड़े।

चौथा मिसरा

जो सुना मैंने तो तलवों से लगी सर पे बुझी, फट से कहा मुंह पे कि जारे बुत-ए-अय्यार, जफा-कार, सितमगार, दिल-आजार, तुझी को है सजावार, कि सीधी को तू उलटी कहे उलटी को तू सीधी, करे बेमेहरी की बौछार, गम-ओ-रंज की भरमार, तुझे पास-ए-मुहब्बत, न मुहब्बत से सरोकार, न उलफत से इ’लाका, न ये उलफत का खरीदार, न चाहत से तअ’ल्लुक, न तो चाहत तुझे दरकार, फकत अपनी ही सूरत पे है वो नाज कि रखता ही नहीं पांव जमीन पर, तिरी नजरों में चमन दश्त है गुल खार, पर अच्छी नहीं है बात, सुना तूने ये होगा, कि अजाजील को अल्लाह ने सजदे के न करने पे किया मुरिद-ए-ला’नत वो मलक हो के हुआ मुफ्त में शैतां, तो तिरी ए बुत-ए-काफिर, नहीं कुछ खाक भी हस्ती, ये जवानी के जो इतराए लिए फिरती है तुझको ये चली जाएगी दो दिन में, यूं जैसे कि दम-ए-सुब्ह का झोंका, तुझे उस वक्त करूंगा मैं सलाम ए बुत-ए-काफिर, कि कहां है वो तगाफुल, वो तजाहुल, वो तबख्तर, वो तकब्बुर, वो तबस्सुम, वो शरारत, वो हरारत, वो गजब नाज, वो शोखी, वो सितम-इ’श्वा, वो तेजी, वो बला कहर अदायें, वो तिरी ज़ॉहर जफाएं, वो कयामत की निगाहें, वो तेरा रूप वो रंगत, वो तिरा हुस्न वो छल बल, जो गए ये तो दोबारा, नहीं तू पाएगा हरगिज, रहे गो लाख तू सौ जान से जूया।

पांचवां मिसरा

ये तमाशा है कि उलटी हुई मुझसे उन्हें उलफत, मुझे नफरत उन्हें रगबत, मुझे कुलफत उन्हें हसरत, मुझे हैरत, कि हंसी आती है मुझको उन्हें रोना, वो मिरे इ’श्क में रोते हैं, मैं हंसता हूं, वो करते हैं शिकायत, मुझे होता है तकद्दुर, वो वफाओं के हैं तालिब, मुझे मंजूर जफाएं, वो मुहब्बत के तलबगार, मैं इस रस्म से बेजार, उन्हें चाह का अरमान, मुझे जुल्म की ख्वाहिश कि मुझे जैसे सताया है यूंही उनको सताऊं, मुझे जिस तरह जलाया है यूंही उनको जलाऊं, मुझे जिस तरह रुलाया है यूंही उनको रुलाऊं, मुझे जिस तरह कुढ़ाया है यूंही उनको कुढ़ाऊं, जो वो हों मेहर के तालिब, तो करूं जौर-ओ-जफा मैं, जो वफा चाहें कि बरतूं, तो करूं उनसे दगा मैं, वो खुशी चाहें तो गम दूं, जो बचन चाहें तो दम दूं, जो करूं वा’दा-ए-फरदा, तो महीनों न खबर लूं, जो करूं आज का इकरार, तो बरसों में हो पूरा, सो वो पूरा भी हो कैसे कि मिलूं मिल के सताऊं, कलक-ओ-रंज बढ़ाऊं, जो कहें कुछ तो कहूं रहने दो, फुर्सत नहीं सुनने की, सुनूं भी तो बस इस कान से उस कान उड़ा दूं, वो कहें बहर-ए-खुदा रहम करो, मुझसे मुसीबत नहीं उठती, ये नया रंग-ए-जमाना है कि मैं तुम प फिदा हूं, करो तुम याद वो घड़ियां कि मेरी चाह में तुम रहते थे गिर्या, ये सितम क्या है कि मा’शूक से रहते हो कशीदा-ओ-कबीदा।

छठा मिसरा

नहीं शक इस में जरा भी, ये मसल सच है कि आता है किया अपने ही आगे, उन्हें देखो कि सताते थे, जलाते थे, रुलाते थे मिरे दिल को, दुखाते थे कुढ़ाते थे महीनों सिफत-ए-शम्अ’ घुलाते थे, जफाओं को बढ़ाते थे, मुहब्बत को घटाते थे, सितम मुझ प वो ढाते थे, कभी मूं को छुपाते थे, कभी आंख चुराते थे, न आते थे न जाते थे, फकत दूर से बातें ही बनाते थे, नया रोज वो तूफान उठाते थे, मिरे दिल पे बड़ा रो’ब बिठाते थे, अब ऐसे हैं, कि मैं उनको सताता हूं, जलाता हूं रुलाता हूं, बहुत दिल को दुखाता हूं कुढ़ाता हूं, महीनों सिफ़त-ए-शम्अ’ घुलाता हूं, जफ़ाओं को बढ़ाता हूं, मुहब्बत को घटाता हूं, सितम उन प ये ढाता हूं, न आता हूं न जाता हूं, फकत दूर से बातें ही बनाता हूं, कभी मूं को छुपाता हूं, कभी आंख चुराता हूं, नया रोज मैं तूफान उठाता हूं, मैं इस दिल पे बहुत रो’ब बिठाता हूं, जो वो हाल दिखाते हैं, तो लाखों ही सुनाता हूं, वफ़ाओं पे नज़र है, न मुहब्बत की ख़बर है, जो इधर हाल था पहले, वही अब हाल उधर है, जो ये बदला हुआ आ’लम है तो इसका ये असर है, वही अब सीना-सिपर है, जो बना फिरता था कातिल, जो जफाओं में था कामिल, जो किया करता था गमजे, ये अ’जब रंग-ए-मुहब्बत है कि जो रंज से रोता था, वो हंसता है, जो हंसता था वो रोया।

सातवां मिसरा

पए-गलगश्त-ए-गुलिस्तां को गई उनकी सवारी, जो चली बाद-ए-बहारी, तो खिली फूलों की क्यारी, कहीं कलियां हुई जाहिर, कहीं गुन्चे हुए पैदा, कहीं बेला, कहीं लाला, कहीं सोसन कहीं शब्-बू, कहीं जूही कहीं गेंदा, कहीं चम्पा, कहीं नसरी कहीं नरगिस हुई शाखों पे नमूदार, वो शाखें जो बरंग-ए-सर-ए-तस्लीम झुकें, ताकि कदम लें, गुल-ए-नौ-रस्ता-ए-खूबी कि जिसे तू कहे, शायां है कि जब तक है वो खुरशीद-ए-नजर, रश्क-ए-कमर, गैरत-ए-गुलहा-ए-चमन, सीम-बदन, माह-जबीं, गुन्चा-दहन, देखे अगर उसकी फबन, गुल हो वहीं शम्अ’, लगे जिसकी नजर सामिरी-फन, जिसकी मिजा तीर-फिगन, है ये उसी के लिए सामान मुहय्या, है उसी के लिए अस्बाब फराहम, कहीं सब्जे का बिछा फर्श कि सोए वो गुल-ए-तर, कहीं मेवों के लगे ढेर कि खाए वो सितमबर, कहीं पानी से भरे हौज कि पीले वो सितम-गर, कहीं पटरी की तमन्ना कि कदम उसके मैं चूमूं, कहीं मेहंदी की ये ख्वाहिश कि मुझे पीस ही डाले, कहीं मेवों की ये हसरत कि हमें तोड़ के फेंके, कहीं शाखों का ये मंशा कि यहीं साये में बैठे, कहीं पानी का ये मतलब कि यहां आ के नहाए, कहीं फूलों का ये अरमान कि हम साया-फिगन हों, कहीं क़ुमरी को तजस्सुस कि रटे जाती है कू-कू, कहीं बुलबुल मुतलाशी कि किधर है बूत-ए-गुलरू-बूत-ए-गुलरू।

आठवां मिसरा

जो गया आ’लम-ए-वहशत में ये देखा कि बड़ी धूम मची है, बड़ा हंगामा बपा है, मुझे मा’लूम हुआ, जज्बा-ए-उलफत की बदौलत कि वो आएंगे, मुझे जिनसे तअ’ल्लुक है मुझे जिनसे मुहब्बत है, लगावट है, इसी वज्ह से मैं बैठ गया ताकि मैं देखूं, बुत-ए-तन्नाज का आना कि बस इतने में नमूदार हुआ वो गुल-ए-रा’ना, जिसे खुसरो ने कहा, “ताज: जवां, मुए मियां, पिस्ता-दहां, आफत-ए-जां, जान-ए-जहां, रोज-ए-रुखे, जुल्फ शबे, दुर-दहने, ला’ल-लबे, यूसुफ-ए-चह-दर-जकने, सीना-अनारे, गुल-ए-बे-जहमत-ए-खारे, मुल-ए-बे रंज-ए-खुमारे, ब-सुखन जुमल: मसीहे, ब-जबान जुमल: फसीहे, ब-नजर जुमल: फने, आहू-ए-जैगम-फगने, जुल्फ-ए-दुता राह-जने. इ’श्व: कुने, गमज: जने, चर्ख-नदीद: ब:-बसर दर्द-ओ-जहां हम-चू बशर, गेसूवे मश्कीनश अगर दस्त रसानद ब-कमर वर्ना दरीं राहगुजर, कस नरसायन्द नजर हम, न खिजां-दीदा बहारश, न चू बैदा न अनारश” मिरे नजदीक जो ऐसा हो, उसे क्या लिखूं ‘मुज्तर’, कि वो कैसा है, ब-सद नाज उतर के लगी बुलबुल ये सुनाने, कि किया दिन ये खुदा ने, जो लगे बाग तुम आने, गुल-ओ-गुलशन को हंसाने, मिरे सुनने को तराने, मिरे नजदीक नहीं इसमें जरा शक कि पड़ी जान चमन में, ये चमन जिस्म है, इस जिस्म की तुम ही मिरी जान जान हो गोया।

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Suneet Singh author

मैं टाइम्स नाऊ नवभारत के साथ बतौर डिप्टी न्यूज़ एडिटर जुड़ा हूं। मूल रूप से उत्तर प्रदेश में बलिया के रहने वाला हूं और साहित्य, संगीत और फिल्मों में म...और देखें

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