अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे पर तीन जजों की बेंच करेगी फैसला, सुप्रीम कोर्ट ने 1967 का फैसला किया खारिज
सुप्रीम कोर्ट ने आज अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे पर अहम फैसला दिया। फैसला 4-3 के बहुमत से दिया गया। जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस शर्मा ने अपनी-अपनी असहमतियां लिखीं।
एएमयू पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला
Aligarh Muslim University: सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे के सवाल को नई पीठ के पास भेज दिया और 1967 के फैसले को खारिज कर दिया जिसमें कहा गया था कि विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता क्योंकि यह एक केंद्रीय कानून द्वारा बनाया गया था। बहुमत का फैसला सुनाते हुए मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे के मुद्दे पर विचार करने के लिए परीक्षण निर्धारित किए।
शीर्ष अदालत ने 4:3 के बहुमत से फैसला दिया
शीर्ष अदालत ने 4:3 के बहुमत से कहा कि 2006 के इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले की वैधता तय करने के लिए एक नई पीठ गठित करने के लिए मामले के न्यायिक रिकॉर्ड सीजेआई के समक्ष रखे जाने चाहिए। जनवरी 2006 में, हाई कोर्ट ने 1981 के कानून के उस प्रावधान को रद्द कर दिया था जिसके द्वारा एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा दिया गया था। शुरुआत में सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा कि चार अलग-अलग राय थीं, जिनमें तीन असहमति वाले फैसले भी शामिल थे। न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता ने अल्पमत के फैसले में कहा कि एएमयू अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान नहीं है।
सीजेआई ने कहा कि उन्होंने बहुमत का फैसला अपने और जस्टिस संजीव खन्ना, जे.बी. पारदीवाला, जस्टिस मनोज मिश्रा के लिए लिखा है। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा ने अपने अलग-अलग असहमति वाले फैसले लिखे हैं।
1967 में एस अजीज बाशा बनाम भारत संघ मामले में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा था कि चूंकि एएमयू एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है, इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता है। हालांकि, जब संसद ने 1981 में एएमयू (संशोधन) अधिनियम पारित किया तो इस प्रतिष्ठित संस्थान को अपना अल्पसंख्यक दर्जा वापस मिल गया।
जानिए सीजेआई ने क्या कहा
सीजेआई ने कहा, मैंने बहुमत के साथ फैसला लिखा है। तीन असहमतियां हैं। जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस शर्मा ने अपनी-अपनी असहमतियां लिखी हैं। इसलिए यह 4-3 का फैसला है। आर्टिकल 30 के तहत अल्पसंख्यक समुदाय को अपने संस्थानों को संचालित करने का मिला अधिकार कोई असीमित अधिकार नहीं है। आर्टिकल 19(6) के तहत अल्पसंख्यक संस्थाओं को भी रेगुलेट किया जा सकता है।
सीजेआई ने कहा, कोर्ट के सामने बुनियादी सवाल है कि आर्टिकल 30 के तहत अल्पसंख्यक संस्थान का आधार क्या हो। इस अदालत ने कहा है कि अनुच्छेद 30 के तहत अधिकार निरपेक्ष नहीं है। संविधान के लागू होने के पहले और बाद के इरादे के बीच अंतर अनुच्छेद 30(1) को कमजोर करने के लिए नहीं किया जा सकता है।
अनुच्छेद 30 कमजोर हो जाएगा यदि यह केवल उन संस्थानों पर लागू होता है जो संविधान लागू होने के बाद स्थापित किए गए हैं। इस प्रकार अल्पसंख्यकों द्वारा स्थापित शैक्षणिक संस्थान जो संविधान लागू होने से पहले स्थापित किए गए थे, वे भी अनुच्छेद 30 के तहत शासित होंगे।
दर्जे पर तीन जजों की बेंच करेंगी फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने 4-3 से 1967 के अजीज बाशा मामले में दिए गए उस फैसले को खारिज कर दिया जिसके आधार पर एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा देने से इनकार किया गया था। हालांकि, कोर्ट ने इस फैसले में दिए गए निष्कर्षों के आधार पर एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को नए सिरे से निर्धारित करने का काम तीन जजों की बेंच पर छोड़ा है। जनवरी 2006 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 1981 के कानून के उस प्रावधान को रद्द कर दिया था जिसके तहत एएमयू को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया था।
एएमयू का टाइमलाइन और विवाद 1877: सर सैयद अहमद खान में मोहमदीन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज (MAO) बनाया
1920 : अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी एक्ट बना
1951: एएमयू एक्ट में संशोधन के जरिए इस्लामिक शिक्षा की अनिवार्यता खत्म की गई। अनुच्छेद 28 कहता है कि अगर किसी शैक्षणिक संस्थान को केंद्र सरकार मदद देती है तो वहां अनिवार्य रूप से धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती है।
1965: एक्ट में दोबारा संशोधन हुआ जिसके जरिए AMU की सुप्रीम गवर्निंग बॉडी सिर्फ मुस्लिम प्रतिनिधियों के ही सदस्य होने के प्रावधान को खत्म कर दिया गया। इस संशोधन के बाद गैर मुस्लिम भी AMU के प्रशासन में शामिल हो सके।
1967: 1965 के संशोधन को चुनौती दी गई> उस वक्त सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की बेंच ने अजीज बाशा बनाम भारत सरकार में बड़ा फैसला देते हुए कहा कि AMU को अल्संख्यक विश्वविद्यालय का दर्जा नहीं दिया जा सकता है..क्योंकि इसे संसद में कानून लाकर स्थापित किया गया था।
1981: केंद्र सरकार ने दोबारा संशोधन करके अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा बरकरार रखा। संशोधन में कहा गया कि विश्वविद्यालय की स्थापना भारत के मुसलमानों के द्वारा की गई है।
2005: अल्पसंख्यक होने का हवाला देते हुए अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी ने अपने मेडिकल कॉलेज के पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल कोर्स के 50 फीसदी सीटों को मुस्लिम छात्रों के लिए आरक्षित कर दिया गया। इसके बाद इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का अल्पसंख्यक दर्जा खत्म कर दिया। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस फैसले में AMU के 2005 के फैसले को रद्द करते हुए केंद्र सरकार द्वारा 1981 में एक्ट में किए गए संशोधन को भी निरस्त कर दिया।
2019: तीन जजों की बेंच जो सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई कर रही थी, उसने इस मामले को सात जजों की संविधान पीठ को भेज दिया।
केंद्र सरकार ने दी ये दलील
वहीं संविधान पीठ के सामने सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने दलील की थी कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का गठन सिर्फ अल्पसंख्यकों के लिए नहीं हुआ था। इसे केंद्र में कानून लाकर बनाया गया था। केंद्र सरकार ने यह भी कहा कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को संविधान की केंद्रीय सूची में राष्ट्रीय महत्व के संस्थान के तौर पर रखा गया है। ऐसे में इसे अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय का दर्जा नहीं दिया जा सकता है। केंद्र ने सुनवाई के दौरान ये भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का असर देश के बाकी विश्वविद्यालयों के माइनॉरिटी स्टेटस पर नहीं पड़ेगा।
बीजेपी-कांग्रेस आमने-सामनेकांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक यूनिवर्सिटी का दर्जा दिए जाने का समर्थन किया था। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और उसे वक्त की केंद्र सरकार ने हाइकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील भी दाखिल की थी। हालांकि 2016 में बीजेपी की सरकार आने के बाद सुप्रीम कोर्ट से इस याचिका को केंद्र सरकार ने वापस ले लिया था।
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