1947 का असली तारा सिंह: लड़ते-लड़ते गई थी 200 सिखों की जान, कुएं में कूदीं 93 महिलाएं, लेकिन नहीं किया धर्म परिवर्तन
1947 भारत-पाक विभाजन के दौरान पाकिस्तान के एक गांव में सिखों ने मरते दम तक बहादुरी से मुस्लिम हमलावरों का मुकाबला किया था। इस दौरान जब 93 महिलाओं के सामने बचने का कोई रास्ता नहीं रहा तो उन्होंने कुएं में कूदकर जान दे दी थी।

1947 में थोहा खालसा में सिखों का कत्लेआम (Credit: Twitter@ImtiazMahmood)
Master Tara Singh: 1947 भारत-पाकिस्तान विभाजन की यादें अभी तक हमारे जेहन में ताजा हैं। विभाजन के दौर में जो मार-काट मची थी, दंगा हुआ था उसके बारे में जानकर आज भी लोग सिहर उठते हैं। उस दौर में जुल्म के साथ दिलेरी के वाकये भी सामने आए थे। धोखा और वादाखिलाफी की ऐसी ही एक कहानी हम आपको बता रहे हैं जब पाकिस्तानियों ने सिखों पर बेइंतहा जुल्म ढाए थे। सिखों ने मरते दम तक बहादुरी से मुकाबला किया था। लेकिन जब महिलाओं के सामने बचने का कोई रास्ता नहीं बचा तो उन्होंने कुएं में कूदकर जान दे दी थी।
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तारा सिंह ने की अगुवाई
आज जब सनी देओल की फिल्म गदर-2 रिलीज होने को तैयार है, ऐसे में इस कहानी का जिक्र करना गलत नहीं होगा। गदर एक काल्पनिक कहानी है जिसका प्रमुख किरदार है तारा सिंह। लेकिन हम आपको जो असली कहानी बताने जा रहे हैं उसके मुख्य किरदार का नाम भी मास्टर तारा सिंह ही है। ये असली तारा सिंह फिल्मी तारा सिंह से अलग है। उसने मरते दम तक अपने समुदाय को बचाने की हर मुमकिन कोशिश की थी।
इम्तियाज महमूद ने जिंदा की कहानी
इसी तारा सिंह और सिखों की दिलेरी की कहानी को पाकिस्तान के इम्तियाज महमूद ने जिंदा किया है। उन्होंने अपने वेरीफाइट ट्विटर अकाउंट के जरिए बताया कि किस तरह तारा सिंह और सिखों के साथ 1947 में धोखा हुआ था और इन्हें अपनी जान की कुर्बानी देनी पड़ी थी। बता दें कि इम्तियाज महमूद पाकिस्तान के मशहूर बॉक्सर हैं जो एशियन गेम्स में गोल्ड मेडल भी जीत चुके हैं। आइए जानते हैं महमूद ने किस तरह उस दौर की हकीकत बयां की है।
महमूद ने लिखी दर्दभरी दास्तां
पाकिस्तान में थोहा खालसा (Thoha Khalsa) रावलपिंडी से 30 मील दूर कहुटा में एक गांव है। इस गांव में अमीर सिख परिवार जैसे, बिंद्रा, दुग्गल, आनंद और चंडोक रहते थे। सिख नेता मास्टर तारा सिंह ने विभाजन के विरोध की घोषणा की और लाहौर में पाकिस्तान का झंडा फाड़ दिया था। 9 मार्च, 1947 की शाम को जंगल के इलाकों से मुस्लिमों की भीड़ ने थोहा खालसा में प्रवेश किया और सिखों को धर्म परिवर्तन करने का अल्टीमेटम दिया।
असली संघर्ष अगली सुबह शुरू हुआ जब उनकी संख्या बढ़कर एक हजार हो गई। स्थानीय असहाय और गरीब मुसलमान, जिन्होंने पहले सिखों को सुरक्षा का आश्वासन दिया था, अब मूकदर्शक हो गए थे। तीन दिनों तक विरोध करने के बाद सिखों ने सफेद झंडे फहराए और मुस्लिम भीड़ के साथ बातचीत की। समझौते के तहत तय हुआ कि भीड़ उनके घरों को लूट लेगी, लेकिन उन्हें जलाएगी नहीं। पुरुषों को नहीं मारेगी और न ही महिलाओं का अपमान करेगी। इसके बाद सिखों ने रुपये एकत्र किए और मांग के अनुसार 20,000 रुपये इन्हें दे दिए। लेकिन भीड़ अपने वादे से मुकर गई।
सरदार गुलाब सिंह की हवेली में जमा हुए सिख
इसके बाद सभी सिखों ने अपने घरों को छोड़ दिया और सभी सरदार गुलाब सिंह की केंद्रीय हवेली में एकत्र हुए। बाकी लोगों ने दुख भंजनी गुरुद्वारे में शरण ली। इन्होंने छह दिनों तक अपने घरों को लूटते और जलते देखा। घरों को लूटने के बाद मुस्लिम भीड़ ने गुलाब सिंह की हवेली की ओर रुख किया और उसे घेर लिया। लेकिन जब हार और अपमान नजदीक थी तो सिख मौत आने तक युद्ध की तैयारी करने लगे। पुरुष लड़े और सिख महिलाएं बगीचे के चारों ओर एक कुएं के पास इकट्ठा होने लगीं। जब सभी पुरुष मारे गए और सिर्फ महिलाएं और बच्चे रह गए तो मान कौर सभी महिलाओं को हवेली के एक बड़े कुएं में ले गईं। उसने जापूजी साहिब सिख प्रार्थना पढ़ी और कुएं के अंदर कूद गईं।
93 से अधिक सिख महिलाओं ने उनका अनुसरण किया और सभी ने कुएं में कूदकर सामूहिक आत्महत्या कर ली। 12 मार्च, 1947 को लंबे और तीखे प्रतिरोध के बाद 200 सिख मारे गए। महिलाओं को इस्लाम कबूल करने के लिए कहा गया। इसके बाद मुस्लिम आक्रमणकारी वहां से भाग गए। थोड़ी देर बाद सेना आई और बचे लोगों को बचाया। भारत के वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने गांव का दौरा किया। लेडी माउंटबेटन ने पीड़ितों के बचाव और अस्पताल में भर्ती कराने का बीड़ा उठाया। बचे लोग रावत, कहुटा में शरणार्थी शिविरों की सुरक्षा में पहुंचे और अपनी दर्दभरी कहानियां सुनाने के लिए जिंदा रहे।
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