'ऑपरेशन गुलमर्ग' हो, 'ऑपरेशन जिब्राल्टर' हो या कारगिल, कश्मीर हड़पने की हर चाल को नाकाम करता आया है भारत
Jammu and Kashmir : कश्मीर हड़पने की पाकिस्तान की नापाक, कुत्सित मंशा और छटपटाहट 1947 में सामने आ गई। कश्मीर पर कब्जा करने के लिए उसने 'ऑपरेशन गुलमर्ग' शुरू किया। 21-22 अक्टूबर की दरम्यानी रात में उसने हजारों की संख्या में पश्तून कबाइलियों को हमला करने के लिए भेज दिया। खास बात यह है कि इन कबाइलियों में पाकिस्तानी सेना के सैनिक उन्हीं के भेष में थे।

भारत और पाकिस्तान के बीच अब तक चार युद्ध हो चुके हैं।
Jammu and Kashmir : धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर का इतिहास आजादी के बाद से ही उथल-पुथल से युक्त और रक्तरंजित रहा है। आजादी के बाद यानी 1947 के बाद से ही जम्मू-कश्मीर में सुरक्षाबलों और भारत के प्रति वफादारी रखने वालों को निशाना बनाया जाने लगा। हालांकि, इनकी संख्या कम जरूर थी लेकिन आतंकवाद को अपनी एक नीति के तौर पर पाकिस्तान ने इसे 1990 के दशक से आगे बढ़ाना शुरू किया। पाकिस्तान सेना और आतंक के आका कश्मीर हड़पने, उसकी डेमोग्राफी बदलने और सुरक्षाबलों को निशाना बनाने की अपनी साजिश को अंजाम देते रहे। इन्होंने कश्मीरी पंडितों पर हमले कराए। आतंक और दहशत के इस दौर में कश्मीरियों की बहु-बेटियों की इज्जत लूटी गई। उनकी संपत्तियों पर कब्जा किया गया। आतंकवाद के डर से बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडित अपनी जड़ों से विस्थापित हुए।
1947 में ही सेट किया आतंक का नरेटिव
कहने का मतलब है कि जम्मू-कश्मीर में हिंसा, आतंक, डराने-धमकाने का नरेटिव 1947 के बाद से ही सेट होने लगा था। इसकी शुरुआत सितंबर 1966 में सोपोर में हुए हमले से मानी जा सकती है। अपने खूबसूरत सेब के लिए मशहूर यह कस्बा आतंक की गोलियों से दहल उठा। सोपोर की एक गली में सीआईडी इंस्पेक्टर अमर चांद की गोली मारकर बेरहमी से हत्या कर दी गई। चांद को सीने और सिर में गोली मारी गई। जांच में पता चला कि आतंक के इस घिनौने करतूत को 28 साल के मकबूल भट्ट ने अंजाम दिया। मकबूल कश्मीर की आजादी के लिए लड़ने वाले पाकिस्तान स्थित नेशनल लिबरेशन फ्रंट (एनएलएफ) का सचिव था। बाद में वह गिरफ्तार हुआ। उसने चांद की हत्या की बात कबूली, फिर बाद में अपने कबूलनामे से पलट गया। उसने कहा कि चांद 'गद्दार' था। हालांकि, उस पर केस चला और अगस्त 1968 में प्रत्यक्षदर्शियों की गवाही उसे फांसी के फंदे तक लेकर आई।
कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ले गए नेहरू
कश्मीर हड़पने की पाकिस्तान की नापाक, कुत्सित मंशा और छटपटाहट 1947 में सामने आ गई। कश्मीर पर कब्जा करने के लिए उसने 'ऑपरेशन गुलमर्ग' शुरू किया। 21-22 अक्टूबर की दरम्यानी रात में उसने हजारों की संख्या में पश्तून कबाइलियों को हमला करने के लिए भेज दिया। खास बात यह है कि इन कबाइलियों में पाकिस्तानी सेना के सैनिक उन्हीं के भेष में थे जो इस हमले की अगुवाई कर रहे थे। कश्मीर की पहचान खत्म करने के लिए पाकिस्तान का यह पहला और बड़ा हमला था लेकिन भारत सरकार ने पाकिस्तान के मंसूबों पर पानी फेरते हुए इन्हें वहां से मार भगाया। कश्मीर से इन कबाइलियों और पाकिस्तानी सेना को पूरी तरह से खदेड़ने के लिए भारतीय सेना को कुछ और दिन का समय चाहिए था लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इसकी इजाजत नहीं दी। वह गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की इच्छा के विपरीत जाकर कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र में लेकर चले गए। इसके बाद यूएन ने कश्मीर में एक लकीर खींच दी, कश्मीर का जो हिस्सा जिसके पास था, वह उसी के पास रह गया। एक्सपर्ट कहते हैं कि यूएन में जाना भारत की ऐतिहासिक और रणनीतिक गलती थी। नेहरू ने सेना को कुछ और दिन दिए होते तो पीओके भी आज भारत का हिस्सा होता।
1965 में 'ऑपरेशन जिब्राल्टर' लॉन्च किया
खैर, 1947 में मार खाने के बाद भी पाकिस्तान की सोच और नीयत में कोई बदलाव नहीं आया। इसके बाद 1965 में कश्मीर हड़पने की उसने एक बड़ी साजिश रची और 'ऑपरेशन जिब्राल्टर' लॉन्च किया। इस हमले के लिए उसने रजाकारों को प्रशिक्षित किया और अपने सैनिकों के साथ समूहों में इनकी घुसपैठ कराई। इन्हें सुरक्षाकर्मियों को निशाना बनाते हुए श्रीनगर पहुंचने और 8-9 अगस्त के प्रदर्शन में शामिल होने के लिए कहा गया था। पाकिस्तान को लगता था कि इस बार कश्मीर की जनता उनके साथ आ जाएगी और भारत के खिलाफ विद्रोह कर देगी। रिपोर्टों के मुताबिक पाकिस्तानी मेजर जनरल अख्तर हुसैन मलिक ने इसके लिए एक पुख्ता प्लान तैयार किया था और अपनी इस साजिश को उन्होंने उस समय के विदेश मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के साथ भी साझा किया।
भारतीय सेना ने 'ऑपरेशन जिब्राल्टर' की हवा निकाल दी
मलिक ने भट्टो को भरोसा दिया कि मुजाहिदीन इस बार कश्मीर पर कब्जा कर लेंगे। मलिक ने जनरल अयूब खान से भी इस ऑपरेशन की मंजूरी ले ली। लेकिन मलिक के इस प्लान का हश्र भी 'ऑपरेशन गुलमर्ग' जैसा हुआ। कुछ ही दिनों में भारतीय सेना ने 'ऑपरेशन जिब्राल्टर' की हवा निकाल दी। पाकिस्तान को उम्मीद थी कि कश्मीरी इस बार बगावत कर देंगे लेकिन उनकी मंशा धरी की धरी रह गई। उलटे कश्मीरी भारतीय सेना को घुसपैठ के बारे में बताने लगे। फिर क्या था भारतीय सेना ने इन मुजाहिदीनों के खिलाफ एक बड़ा अभियान छेड़ दिया। बड़ी संख्या में मुजाहिदीन या तो पकड़े गए या मार दिए गए।
1962 में चीन से हारा भारत, पाक ने देखा मौका
पाकिस्तान को लगता था कि 1962 में चीन के साथ लड़ाई हारने के बाद भारतीय सेना का मनोबल कमजोर है। उसके पास युद्ध लड़ने के लिए पर्याप्त संसाधन और गोला-बारूद नहीं है। दूसरा, प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को उसने कमजोर आंका। उसे लगा कि शास्त्री एक कठपुतली पीएम हैं, वह जवाबी हमला जैसा कोई बड़ा फैसला नहीं करेंगे। ऐसे में स्थानीय कश्मीरियों की मदद से कश्मीर हड़पने की उसकी साजिश इस बार पूरी तरह सफल हो जाएगी लेकिन पाकिस्तान फिर गलती कर गया। पाकिस्तान को जवाब देने के लिए भारत न तो उस समय सैन्य रूप से कमजोर था और न ही उसकी नेतृत्व क्षमता में किसी तरह की कमी थी। कश्मीर में मुजाहिदीन और पाकिस्तानी सेना का सामना भारतीय सेना तो कर ही रही थी, प्रधानमंत्री शास्त्री ने मजबूत इच्छा शक्ति का परिचय देते हुए युद्ध का एक और मोर्चा खोल दिया। शास्त्री ने सेना को लाहौर पर चढ़ाई करने की इजाजत दी। भारतीय फौज लाहौर में घुसने लगी।
लाहौर पर हमला कर भारत ने पलट दी बाजी
लाहौर पर हमले के बाद पाकिस्तानी सेना के हाथ-पांव फूल गए। उसे जरा भी उम्मीद नहीं थी कि भारत, लाहौर पर हमला कर देगा। यही नहीं इसी लड़ाई में भारत ने रणनीतिक रूप से काफी अहम पीर पंजाल पास पर कब्जा कर लिया। इससे जम्मू से श्रीनगर में पहुंचने में लगने वाले समय में काफी कमी आ गई। लेकिन ताशकंद समझौते के तहत शास्त्री ने इसे पीर पंजाल पास को वापस पाकिस्तान को दे दिया। पीर पंजाल पास जहां से पाकिस्तान आतंकियों की घुसपैठ कराता था, जब यह भारत के पास आ गया था तो इसे क्यों लौटाया गया, इस पर सवाल आज भी पूछे जाते हैं। पाकिस्तान के साथ यह समझौता रूस के ताशकंद शहर में हुआ था। कहा जाता है कि शास्त्री पर बाहरी देशों यानी रूस का दबाव था। दूसरा, पाकिस्तान ने वादा किया था कि वह भारत के खिलाफ आगे युद्ध नहीं छेड़ेगा और सीमा पर शांति बनाकर रखेगा। इस वादे पर भारतीय पीएम ने पीर पंजाल पास को उसे वापस दे दिया। हालांकि, ताशकंद में पीएम शास्त्री की अचानक एवं संदेहास्पद परिस्थितियों में हुई मौत कई सवाल खड़े करती है। 1965 में भी कश्मीर हड़पने की पाकिस्तान की मंशा पूरी तरह विफल हो गई।
पाकिस्तान के टुकड़े हुए, बांग्लादेश का जन्म
1971 की लड़ाई में तो पाकिस्तान का भारी नुकसान हुआ। भारत ने उसके दो टुकड़े कर पूर्वी पाकिस्तान को बांग्लादेश बना दिया। जनरल मानेक शॉ की रणनीति ने पाकिस्तानी सेना के छक्के छुड़ा दिए। करीब 93 हजार पाकिस्तानी सैनिकों ने सरेंडर किया। पाकिस्तानी को बहुत भारी शर्मिंदगी उठानी पड़ी। यहां भी भारत की तरफ से रणनीतिक चूक हुई। भारत इन सैनिकों के बदले पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर की अदला-बदली कर सकता था लेकिन भारत ने उस वक्त भी दरियादिली दिखाई और करीब डेढ़ साल तक देश की अलग-अलग जेलों में रखने के बाद इन्हें वापस कर दिया। इस युद्ध का सीधा असर कश्मीर पर तो नहीं हुआ लेकि फिर 1972 में हुए शिमला समझौते में नियंत्रण रेखा (LoC) की नींव रख दी गई। नियंत्रण रेखा ने कश्मीर को दो भागों में बांट दिया। आधिकारिक तौर पर एक हिस्सा पाकिस्तान के पास और दूसरा हिस्सा भारत के पास आ गया। इस समझौते के बाद कश्मीर विवाद का एक नया चैप्टर शुरू हो गया। यही नहीं इस युद्ध में पश्चिमी मोर्चे पर भारत ने पाकिस्तान के कई इलाकों पर कब्जा किया था उसे भी लौटा दिया गया।
कारगिल में पीठ में छुरा घोंपा
1999 की सर्दियों में पाकिस्तान ने एक बार फिर भारत की पीठ में छुरा घोंप दिया। दोनों देशों के बीच रिश्ते सुधारने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बस से लाहौर गए लेकिन पाकिस्तान अपनी फितरत से बाज नहीं आया। भारत दोनों देशों के बीच संबंध सुधारने की कोशिशों में लगा था तो पाकिस्तानी सेना के चीफ जनरल परवेज मुशर्रफ कारगिल की चोटियों पर कब्जा कर रहे थे। मुशर्रफ की मंशा कारिगल को पूरी तरह से भारत से काटकर अपने में मिलाने की थी लेकिन जैसे ही इसकी जानकारी भारत को हुई। भारत ने पलटवार करते हुए पाकिस्तानी सेना और उसके आतंकियों के छक्के छुड़ाने शुरू कर दिए। भारतीय वायु सेना ने चोटियों पर बम गिराकर इनके हौसले पस्त कर दिए। इतनी मार पड़ी कि इन्हें वापस भागना पड़ा। इस लड़ाई में बड़ी संख्या में पाकिस्तानी सैनिक मारे गए लेकिन पाकिस्तान इतना बेशर्म मुल्क है कि उसने अपने सैनिकों के शव को वापस लेने से इंकार कर दिया। बाद में भारतीय सेना ने इन सैनिकों को अपने यहां सुपुर्दे खाक किया।
'ब्लीड इंडिया विथ थाउजैंड कट्स'
पाकिस्तान का जन्म ही नफरत की कोख से हुआ है। उसकी पैदाइश हिंदू विरोध पर है। पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना ने आजादी के समय द्वि-राष्ट्र सिद्धांत की जो घुट्टी पाकिस्तानियों को पिलाई वह पीढ़ी दर पीढ़ी चलती आ रही है। बीते दशकों में कश्मीर और देश के अन्य हिस्सों में हुए आतंकवादी हमले, 2008 का मुंबई हमला, 2016 का उरी हमला, 2019 का पुलवामा और अब पहलगाम। ये सभी हमले 'ब्लीड इंडिया विथ थाउजैंड कट्स' की पाकिस्तानी रणनीति का हिस्सा हैं। उसकी मंशा समय-समय पर घाव देते रहने की है जिससे भारत जख्मी होकर रिसता रहे। ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान के इन दुस्साहसों एवं कायरतापूर्ण हमलों का भारत ने जवाब नहीं दिया है। भारत की जवाबी कार्रवाई के बाद कुछ दिनों तक तो वह शांत रहता है लेकिन कुछ समय बाद उसे हमले का दौरा पड़ जाता है। पाकिस्तान की इस 'मिरगी' का स्थायी इलाज भारतीय सेना अब करने जा रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आतंक का हिसाब करने की खुली छूट सेना को दे दी है। पीएम ने कहा है कि आतंक के खिलाफ हमला कैसे, कब और किन तरीकों से करना है, इसे सेना को ही तय करना है।
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