Santoshi Mata Vrat Katha: संतोषी माता की कथा से जानें इस व्रत की विधि और नियम

Santoshi Mata Vrat Katha Vidhi: शुक्रवार के दिन कई लोग संतोषी माता का व्रत-पूजन करते हैं। व्रत रखने वाले लोगों को संतोषी माता की कथा सुनना अनिवार्य होता है। यहां देखें संतोषी माता की व्रत कथा।

Shukravar Santoshi Mata Vrat Katha

Santoshi Mata Vrat Katha

Santoshi Mata Vrat Katha: शुक्रवार का दिन माता लक्ष्मी और माता संतोषी को समर्पित है। मां संतोषी को सुख, समृद्धि, और धन-धान्य प्रदान करने वाली देवी माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि जो कोई भी शुक्रवार के दिन सच्चे मन से मां संतोषी की पूजा-अर्चना करता है उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। मां संतोषी का व्रत लगातार 16 शुक्रवार तक किया जाता है। बस इस बात का ध्यान रखें कि इस व्रत में भूलकर भी खट्टे फल या सब्जी का सेवन नहीं करना चाहिए। अब जानिए संतोषी माता की व्रत कथा।

संतोषी माता व्रत कथा (Santoshi Mata Vrat Katha In Hindi)

एक बुढ़िया थी जिसके सात बेटे थे। 6 कमाने वाले और एक निक्कमा बेटा। बुढ़िया अपने छहों बेटों की रसोई बनाती, भोजन कराती और उनसे जो कुछ जूठन बचती वह सातवें को देती थी। एक दिन उनका निक्कमा बेटा अपनी पत्नी से बोला- देखो मेरी मां को मुझ से कितना प्रेम है। पत्नी बोली- क्यों नहीं, सबका झूठा जो तुमको खिलाती है। वह बोला नहीं ऐसा नहीं है। मैं जब तक आंखों से न देख लूं मैं मान नहीं सकता। बहू हंस कर बोली- देख लोगे तब तो मानोगे।

कुछ दिन बाद त्यौहार आया। उनके घर में सात प्रकार के भोजन और चूरमे के लड्डू बने। वह अपनी मां की इस हरकत का पता लगाने के लिए अपने सिर दुखने का बहाना कर एक पतला वस्त्र सिर पर ओढ़े रसोई घर में सो गया। वह उस कपड़े में से सब देखता रहा। छहों भाई भोजन करने आए। उसने देखा उसकी मां ने उसके भाईयों के लिए सुन्दर आसन बिछा नाना प्रकार की रसोई परोसी। वह देखता रहा।

छहों भाई भोजन करके उठे तब मां ने उनकी झूठी थालियों में से लड्डुओं के टुकड़े उठाकर एक लड्डू बनाया। फिर मां ने उसे पुकारा- बेटा, छहों भाई भोजन कर गए अब तू ही बाकी है, उठ तू कब खाएगा। वह कहने लगा- मां मुझे भोजन नहीं करना, मैं परदेश जा रहा हूं। मां ने कहा- कल जाता हो तो आज चला जा। वह बोला- हां मां आज ही जा रहा हूं। यह कह कर वह घर से निकल गया।

बेटे को परदेश जाते समय पत्नी की याद आ गई। वह गौशाला में कण्डे थाप रही थी। वहां जाकर वह अपनी पत्नी से बोला-हम जावे परदेश आवेंगे कुछ काल, तुम रहियो संतोष से धर्म आपनो पाल। पत्नी बोली-

जाओ पिया आनन्द से हमारो सोच हटाय,

राम भरोसे हम रहें ईश्वर तुम्हें सहाय।

दो निशानी आपन देख धरूं में धीर,

सुधि मति हमारी बिसारियो रखियो मन गम्भीर।

वह बोला- मेरे पास तो कुछ भी नहीं है यह अंगूठी है सो ले और अपनी कुछ निशानी मुझे दे दे।

वह बोली- मेरे पास क्या है, यह गोबर भरा हाथ। इतना कहकर पत्नी ने उसकी पीठ पर गोबर के हाथ की थाप मार दी। वह चल दिया, चलते-चलते वह कहीं दूर देश पहुंचा।

वहां एक साहूकार की दुकान थी। जहां जाकर उसने नौकरी मांगी। साहूकार ने उसे नौकरी पर रख लिया। लड़के ने पूछा- तनखा क्या दोगे।

साहूकार बोला काम देख कर दाम मिलेंगे। कुछ दिनों में दुकान का सारा लेन-देन, हिसाब-किताब, ग्राहकों को माल बेचना सब काम लड़का करने लगा। साहूकार के सात-आठ नौकर थे, जो उस लड़के को देखकर चक्कर खाने लगे, यह तो बहुत होशियार बन गया। सेठ ने भी तीन महीने में ही उसे आधे मुनाफे का हिस्सेदार भी बना लिया। वह कुछ वर्ष में ही नामी सेठ बन गया और इस तरह से मालिक सारा कारोबार उसपर छोड़कर चला गया।

इधर उस लड़के की पत्नी को सास ससुर दु:खी करने लगे, सारी गृहस्थी का काम कराके उसे लकड़ी लेने जंगल में भेज देते थे। इतना ही नहीं घर के आटे से जो भूसी निकलती उसकी रोटी बनाकर उसके लिए रख दी जाती थी और फूटे नारियल की नारेली में पानी देते थे। एक दिन वह जब लकड़ी लेने जा रही थी तो रास्ते में बहुत सी स्त्रियां संतोषी माता का व्रत करती दिखाई दी।

बेटे की पत्नी वहां खड़ी होकर कथा सुनने लगी और पूछा- बहिनों तुम किस देवता का व्रत कर रही हो और इस व्रत को करने से क्या लाभ मिलता है।

तब एक स्त्री बोली- सुनो, यह संतोषी माता का व्रत है। इस व्रत को करने से निर्धनता, दरिद्रता का नाश होता है। साथ ही हर प्रकार की कामना पूरी हो जाती है। तब उसने उससे व्रत की विधि पूछी।

वह स्त्री बोली- कम से कम सवा आने का गुड़ चना लेना, इच्छा हो तो सवा पांच आने का लेना या फिर सवा रुपए का भी सहूलियत के अनुसार ले सकती हो। श्रद्धा व प्रेम से जितना भी बन पड़े सवाया लेना। हर शुक्रवार को निराहार रह कर माता की कथा सुनना, इसके बीच व्रत रखने का क्रम टूटे नहीं, अगर व्रत कथा सुनाने वाला कोई न मिले तो एक घी का दीपक जलाकर या जल के पात्र को सामने रख कर कथा कहना। जब तक कार्य सिद्ध न हो व्रत का पालन करना और कार्य सिद्ध हो जाने पर व्रत का विधि विधान उद्यापन करना।

माता संतोषी तीन मास में फल पूरा करती है। यदि किसी के ग्रह-नक्षत्र खोटे भी हों, तो भी माता एक साल में कार्य सिद्ध कर देती हैं, फल सिद्ध होने पर उद्यापन करना चाहिए। उद्यापन में अढ़ाई सेर आटे का खाजा, खीर और चने का साग करना। आठ लड़कों को भोजन कराना। उन्हें भोजन करा यथा शक्ति दक्षिणा देना। इस बात का ध्यान रखना कि उस दिन घर में खटाई न खाना।

इस तरह से वह महिला व्रत की विधि जान घर वापस चल दी और रास्ते में उसने लकड़ी के बोझ को बेच दिया और उन पैसों से उसने गुड़-चना ले लिया। जब माता के व्रत की तैयारी कर वह आगे चली तो सामने मंदिर देखकर पूछने लगी- यह मंदिर किसका है। किसी ने बताया कि ये मंदिर संतोषी माता का है, यह सुनकर वह माता के मंदिर में जाकर चरणों में लोटने लगी। कहने लगी- मां मैं निपट अज्ञानी हूं, व्रत के कुछ भी नियम नहीं जानती, मैं दु:खी हूं। हे माता ! मेरा दु:ख दूर कर मैं तेरी शरण में हूं।

माता को उस पर दया आ गई- एक शुक्रवार बीता तो दूसरे शुक्रवार को उसके पति का पत्र आया और तीसरे शुक्रवार को उसका भेजा हुआ पैसा आ पहुंचा। यह देख जेठ-जिठानी मुंह सिकोडऩे लगे। लड़के ताने देने लगे कि अब तो काकी के पास पत्र आने लगे, रुपया आने लगा, अब तो खातिर बढ़ेगी। बहू सरलता से कहती- भैया कागज आये रुपया आये हम सब के लिए अच्छा है। ऐसा कह कर वह आंखों में आंसू भरकर संतोषी माता के मंदिर में जाकर उनके चरणों में गिरकर रोने लगी। मां मैंने तुमसे पैसा कब मांगा है।

मैं पैसों का क्या करूंगी। मुझे तो अपने सुहाग से काम है। मैं तो अपने स्वामी के दर्शन करना चाहती हूं। तब माता ने प्रसन्न होकर कहा- जा बेटी, तेरा स्वामी आयेगा। यह सुनकर उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। अब संतोषी मां सोचने लगी किि इस भोली पुत्री को मैंने कह तो दिया कि तेरा पति आयेगा लेकिन कैसे? वह तो सपने में भी इसे याद नहीं करता।

उसे इसकी याद दिलाने के लिए मुझे ही जाना पड़ेगा। इस तरह संतोषी माता बुढ़िया के बेटे के सपने में प्रकट हुई और कहने लगी- साहूकार के बेटे, सो रहा है या जागता है। वह कहने लगा- माता मैं सोता भी नहीं, जागता भी नहीं हूं कहो आपकी क्या आज्ञा है? मां कहने लगी- तेरे घर-बार कुछ है कि नहीं। वह बोला- मेरे पास सब कुछ है मां-बाप है बहू। मां बोली- पुत्र तेरी बहू घोर कष्ट उठा रही है, तेरे मां-बाप उसे बेहद कष्ट दे रहे हैं। वह तेरे लिए तरस रही है, तू उसकी सुध ले। वह बोला- हां माता जी यह तो मुझे मालूम है, परंतु जाऊं तो कैसे? परदेश की बात है, लेन-देन का कोई हिसाब नहीं, कोई जाने का रास्ता नहीं आता, कैसे चला जाऊं?

फिर मां ने कहा- सवेरे नहा धोकर संतोषी माता का नाम ले, घी का दीपक जला दण्डवत कर दुकान पर जा बैठ। देखते-देखते सारा लेन-देन तेरा चुक जाएगा, जमा का माल बिक जाएगा, शाम होते-होते धन का अंबार लग जाएगा। लड़के ने माता के कहे अनुसार ही किया। इस तरह उसरा सारा काम निपट गया। शाम तक धन का भारी ठेर लग गया। बेटा माता का नाम ले चमत्कार देख प्रसन्न हो घर ले जाने के लिए गहना, कपड़ा सामान खरीदने लगा। और काम से निपट तुरंत घर को रवाना हुआ।

उधर उसकी पत्नी जंगल में लकड़ी लेने के लिए निकल गई, लौटते वक्त माताजी के मंदिर में विश्राम करने लगी। धूल उड़ती देख वह माता से पूछी- हे माता! यह धूल कैसे उड़ रही है? माता ने कहा- हे पुत्री तेरा पति आ रहा है। अब तू ऐसा कर लकड़ियों के तीन बोझ बना, एक नदी के किनारे रखना और दूसरा मेरे मंदिर में रखना व तीसरा अपने सिर पर।

तेरे पति को लकड़ियों का गट्ठर देख मोह पैदा होगा, वह यहां जरूर रुकेगा, नाश्ता-पानी खाकर मां से मिलने जाएगा। तब तू लकड़ियों का बोझ उठाकर घर जाना और चौक में गट्ठर डालकर जोर से कहना- लो सासूजी, लकडिय़ों का गट्ठर लो, भूसी की रोटी दो, नारियल के खेपड़े में पानी दो, आज मेहमान कौन आया है? बहू ने संतोषी माता के कहे अनुसार लकड़ियों के तीन गट्ठर बनाए। एक नदी के किनारे और एक माताजी के मंदिर पर रखा।

इतने में मुसाफिर आ गया। सूखी लकड़ी देख उसकी इच्छा उत्पन्न हुई कि हम यही पर विश्राम करेंऔर भोजन बनाकर खा-पीकर घर जाएं। इसी तरह रुक कर भोजन बनाकर और विश्राम करके लड़का गांव को गया। सबसे प्रेम से मिला। उसी समय सिर पर लकड़ी का गट्ठर लिए बुढ़िया की बहू भारी बोझ आंगन में डालकर जोर से तीन आवाज देती है- लो सासूजी, लकड़ियों का गट्ठर लो, भूसी की रोटी दो। आज मेहमान कौन आया है।

यह सुनकर उसकी सास बाहर आकर अपने द्वारा दिए गए कष्टों को भुलाने हेतु कहती है- बहु ऐसा क्यों कहती है? तेरा मालिक आया है। आ बैठ, मीठा भात खा, भोजन कर, कपड़े-गहने पहिन। उसकी आवाज सुन उसका पति बाहर आता है। अंगूठी देख व्याकुल हो गया। मां से पूछता है- मां यह कौन है? मां बोली- बेटा यह तेरी बहू है। जब से तू गया है तब से सारे गांव में भटकती फिरती है। घर का काम-काज कुछ करती नहीं है, चार पहर आकर खा जाती है।

वह बोला- ठीक है मां मैंने इसे भी देखा और तुम्हें भी, अब दूसरे घर की ताली दो, मैं वहां रहूंगा। मां बोली- ठीक है, जैसी तेरी मरजी। तब उसने दूसरे मकान की तीसरी मंजिल पर अपना सारा सामान जमाया। एक दिन में उस कमरे में राजा के महल जैसा ठाट-बाट बन गया। अब क्या था? बहू सुख भोगने लगी। इतने में शुक्रवार आया।

शुक्रवार व्रत के उद्यापन में हुई भूल, किया खटाई का इस्तेमाल-

उसने पति से कहा- मुझे संतोषी माता के व्रत का उद्यापन करना है। पति बोला- खुशी से कर लो। इस तरह वह उद्यापन की तैयारी करने लगी और उसने अपनी जिठानी के लड़कों को भोजन के लिए बुलाया। जिठानी ने अपने बच्चों को सिखाया, देखो, भोजन के समय खटाई मांगना, जिससे उसका उद्यापन पूरा न हो।

लड़के जीमने आए सबने पेट भर खाया, परंतु बाद में खाते ही कहने लगे- हमें खटाई दो। वह कहने लगी- भाई खटाई किसी को नहीं दी जाएगी। यह तो संतोषी माता का प्रसाद है। लड़के बोले फिर पैसा लाओ, भोली बहू कुछ जानती नहीं थी, उन्हें उसने पैसे दे दिए। लड़के उसी समय इमली खटाई ले खाने लगे। यह देखकर बहू पर माताजी ने कोप किया। राजा के दूत उसके पति को ले गए। जेठ जेठानी बोलने लगे लूट-लूट कर धन इकट्ठा कर लाया है, अब सब मालूम पड़ जाएगा जब जेल की मार खाएगा।

बहू रोती हुई माताजी के मंदिर गई, कहने लगी- हे माता! तुमने क्या किया, पहले खुशी दी अब दुख देने लगी। माता बोली- बेटी तूने उद्यापन करके मेरा व्रत भंग किया है। वह कहने लगी- माता मैंने भूल से लड़कों को पैसे दे दिए थे, मुझे क्षमा करो। मैं फिर तुम्हारा उद्यापन करूंगी। मां बोली- अब भूल मत करना।

वह कहती है- अब भूल नहीं होगी, अब बतलाओ वे कैसे आवेंगे? मां बोली- जा पुत्री तेरा पति तुझे रास्ते में मिल जाएगा। वह निकली, राह में उसे उसका पति मिल गया। वह पूछी- कहां गए थे? वह कहने लगा- इतना धन जो कमाया है उसका टैक्स राजा ने मांगा था, वह भरने गया था।

वह प्रसन्न हो बोली- भला हुआ, अब घर के लिए चलिए। कुछ दिन बाद फिर शुक्रवार आया और उसने फिर उद्यापन की तैयारी शुरू कर दी।

फिर से बहू जेठ के लड़कों को भोजन के लिए कहने गई। जेठानी फिर से सब लड़कों को सिखाने लगी। तुम सब लोग पहले ही खटाई मांगना। लड़के भोजन से पहले कहने लगे- हमें खीर नहीं खानी, कुछ खटाई खाने को दो। वह बोली- खटाई किसी को नहीं मिलेगी, आना हो तो आओ, फिर वह ब्राह्मण के लड़के लाकर भोजन कराने लगी। फिर उन्हें एक-एक फल दिया। इस तरह से संतोषी माता प्रसन्न हुई।

माता की कृपा से नवमें मास में उसे सुन्दर पुत्र प्राप्त हुआ। पुत्र को पाकर वह प्रतिदिन माता जी के मंदिर को जाने लगी। मां ने सोचा- यह रोज आती है, आज क्यों न मैं ही इसके घर चलूं। यह विचार कर माता ने एक भयानक रूप लिया, गुड़-चने से सना मुख, ऊपर सूंड के समान होठ, उस पर मक्खियां भिन-भिन कर रही थी। जैसे ही इस भयानक रूप में माता ने उसकी देहली पर पैर रखे उसकी सास चिल्लाई- देखो रे, कोई चुड़ैल डाकिन चली आ रही है, लड़कों इसे भगाओ, नहीं तो ये सबको खा जाएगी। लड़के भगाने लगे, चिल्लाकर खिड़की बंद करने लगे।

बहु रौशनदान से सब देख रही थी वह प्रसन्नता से पगली बन चिल्लाने लगी- आज मेरी माता जी मेरे घर आई है। वह अपने बच्चे को दूध पीने से हटाती है। इतने में सास का क्रोध फट पड़ा। वह बोली- क्या उतावली हुई है? बच्चे को ऐसे पटक दिया। इतने में मां के प्रताप से लड़के ही लड़के नजर आने लगे। वह बोली- मां मैं जिसका व्रत करती हूं यह वही संतोषी माता है।

सबने माता के चरण पकड़ लिए और विनती करने लगे- हे माता! हम मूर्ख हैं, अज्ञानी हैं, तुम्हारे व्रत की विधि नहीं जानते, व्रत भंग कर हमने बड़ा ही अपराध किया है, जग माता हमारी इस भूल को क्षमा करो। इस प्रकार माता प्रसन्न हुई। बहू को प्रसन्न हो जैसा फल दिया, वैसा माता सबको देना, जो पढ़े उसका मनोरथ पूर्ण हो।

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    TNN अध्यात्म डेस्क author

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