Stalled Wheels Of Justice: अतुल सुभाष जैसे मामले क्यों होते हैं? कई मुकदमों के हवाले से समझाती है ये किताब
StalledWheelsOfJustice: पत्रकार और रिसर्च स्कॉलर शिशिर त्रिपाठी की इस किताब में कई ऐसे मामलों को दर्ज किया गया है, जिसमें भारतीय कानूनी प्रक्रिया की लचर अवस्था को दिखाया गया है। हाल में हुए अतुल सुभाष जैसे मामले भी इसी लचर कानूनी प्रक्रिया की देन हैं।

StalledWheelsOfJustice
दिल्ली: सॉफ्ट-वेयर इंजीनियर अतुल सुभाष की आत्महत्या के बाद देश में न्यायिक प्रक्रिया के लचर व्यवस्था को लेकर सवाल खड़े होने शुरू हो गए हैं। दरअसल कई बार लंबी कानूनी प्रक्रिया में पीड़ित तक न्याय इतनी देर से पहुंचता है कि वह औचित्यविहीन हो जाता है। केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने 2019 में इस संदर्भ में कहा था-मैं, सुप्रीम कोर्ट और न्यायपालिका का सम्मान करता हूं, मगर कई विचाराधीन मसलों पर, कोर्ट का फैसला बड़ी देरी से आता है.... फैसला लेने में हो रही देरी कई मुश्किलें खड़ी करती हैं...’.
पत्रकार और रिसर्च स्कॉलर शिशिर त्रिपाठी की किताब StalledWheelsOfJustice बहुत सधे हुए अंदाज में न्याय के बीच में आ रही बाधाओं पर चर्चा की है। यह किताब लंबित मामलों की अंतहीन सूची, केस मजबूत बनाने के लिए कानून के दुरुपयोग, न्यायिक बुनियादी ढांचे की खराब स्थिति और कानूनी पहुंच की वित्तीय लागत पर रोशनी डालती है।
498 ए और 376 के दुरुपयोग का जिक्र
शिशिर त्रिपाठी ने 'कानून के दुरुपयोग, न्याय के उपहास' पर ध्यान आकर्षित करते हुए भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498 ए और 376 के दो आम तौर पर दुरुपयोग किए जाने वाले कानूनों का संदर्भ दिया है जो ‘दहेज और बलात्कार’ के मामलों से संबंधित हैं। इस बात पर जोर दिया गया है कि हालांकि ये प्रावधान कमजोर महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाए गए थे, लेकिन अक्सर इनका दुरुपयोग निर्दोष लोगों को दंडित करने या उन्हें कलंकित करने के लिए किया गया है। इसका सबसे ताजा उदाहरण 9 दिसंबर 2024 को टेक इंजिनियर अतुल सुभाष की आत्महत्या का किस्सा है।
महंगी कानूनी मदद
सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में पेशी, सुनवाई, जमानत अर्जी से लेकर रिहाई तक बड़े वकीलों की फीस 5 लाख से 25 लाख और कई मसलों में तो इससे भी ऊपर है। किताब में बताया गया है कि बेंगलुरु स्थित एक संस्था की रिपोर्ट के मुताबिक कोर्ट-कचहरी में न्याय की प्रतीक्षा कर रही 90% आबादी सालाना 3 लाख से भी कम की कमाई में गुजर-बसर कर रही है। ऐसे में जब बात लागत और समाधान तंत्र की आती है तो न्याय अपना मूल तत्व और अर्थ खो देता है।
कानूनी प्रक्रिया और व्यवस्था में सुधार की वकालत करती किताब
आज के भारत को 2047 तक अगर विकसित राष्ट्र बनना है तो नये जजों की नियुक्ति, आर्बिट्रेशन काउंसिल और वकीलों की कार्य-कुशलता में वृद्धि, समय और सूचिबद्ध तरीके से मुकदमों की सुनवाई, साक्ष्य जुटाने और न्यायिक प्रक्रिया में पारदर्शिता पर युद्ध-स्तर पर काम करने की जरूरत है। शिशिर त्रिपाठी की पुस्तक इस बात पर विस्तृत प्रकाश डालती है कि जरूरतमंदों को त्वरित और सुलभ न्याय दिलाने के लिए वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र समय की मांग है।
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