विवाह गारी: गाली ना दो तो बुरा मानते हैं बाराती, क्या है यूपी बिहार में गाली गाने की प्रथा, क्या कहता है शादी में गालियों का समाजशास्त्र

भोजपुरी संस्कृति में शादी एक सामाजिक अनुष्ठान है और समाज का हर वर्ग इसमें अपनी भागीदारी निभाता है। इसलिए धोबी, कुम्हार के लिए भी गाली गीत गाए जाते हैं। आप शादी में इन गालियों का महत्व इस तरह से समझ सकते हैं कि अगर ये गाली गीत न गाए जाएं तो बाराती, रिश्तेदार और उनके समाज का हर वर्ग नाखुश होता है और जब उन्हें गाली गीत से नवाजा जाता है तो वह खुश होते हैं।

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यूपी बिहार की शादियों में क्यों गाई जाती है गाली, क्या है विवाह गारी की प्रथा और महत्व

विवाह गारी: भारत देश जितना विशाल है उतनी ही समृद्ध यहां की संस्कृति और लोक परंपराएं हैं। हर राज्य की अपनी अलग लोककला और मान्यताएं हैं। सबके अपने तीज त्योहार हैं और खास मौकों पर निभाई जाने वाली रस्में भी अलग पहचान रखती है। ऐसी ही एक परंपरा है शादी ब्याह में लड़की वालों की तरफ से लड़के वालों को गाली देने की। यह परंपरा खासतौर पर पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की संस्कृति का हिस्सा है। यहां की कोई भी शादी बिना गाली गाए पूरी नहीं होती। जी हां शादी के मौके पर लड़की पक्ष की तरफ से दूल्हा और दूल्हे के संबंधियों के लिए गाली गाई जाती है। इस मौके पर दूल्हा के जितने नजदीकी संबंधी हैं, उनका उतनी ही अधिक गालियों से स्वागत किया जाता है।

क्या है विवाह गारी की परंपरा

लड़के वालों के लिए गाली गाने की इस परंपरा को विवाह गारी की प्रथा कहा जाता है। शादी में अलग-अलग मौके पर अलग-अलग तरह से भर-भरकर गाली दी जाती है। जैसे मंडप में गुरहत्थी के समय के लिए अलग तरह से गाली दी जाती है तो वहीं तिलक के मौके पर गालियों का अंदाज बदल जाता है। कोहबर में घुसते समय दूल्हे को छेड़ते हुए महिलाएं गाली गाती हैं तो वहीं द्वारपूजा के समय दूल्हे के पिता के सम्मान में गाली दी जाती है। भोजपुरी संस्कृति में शादी एक सामाजिक अनुष्ठान है और समाज का हर वर्ग इसमें अपनी भागीदारी निभाता है। इसलिए धोबी, कुम्हार के लिए भी गाली गीत गाए जाते हैं। आप शादी में इन गालियों का महत्व इस तरह से समझ सकते हैं कि अगर ये गाली गीत न गाए जाएं तो बाराती, रिश्तेदार और उनके समाज का हर वर्ग नाखुश होता है और जब उन्हें गाली गीत से नवाजा जाता है तो वह खुश होते हैं। समधी के लिए एक प्रसिद्ध विवाह गारी लोकगीत है:

सुनाओ मेरी सखियां, स्वागत में गाली,

सुनाओ बजाओ मेरी सखियां ढोलक मजीरा बजाओ।।

चटनी पूरी, चटनी पूरी, चटनी है आम चुर की

खाने वाला समधी मेरा सूरत है लंगूर की

दाएं हाथ से भात खाए, बाएं हाथ से दाल रे

मुंह लगाकर चटनी चाटे, कुकुर जैसी चाल रे।।

कब से शुरू हुआ शादियों में गाली गाना

गाली गीत प्राचीन काल से ही शादियों का हिस्सा रहे हैं और इन्हें अपमान के बजाय स्वागत और सौहार्द का प्रतीक माना जाता था। शादी में गाली देने की परंपरा कब से शुरू हुई इसको लेकर कुछ लोगों का मानना है कि यह मध्यकालीन भारत से शुरू हुई, जब वैवाहिक समारोहों में हास्य और काव्यात्मक संवाद सामाजिक मनोरंजन का हिस्सा थे। वहीं कुछ विद्वान मानते हैं कि विवाह गारी की रस्म रामायण काल से ही चली आ रही है। इसका लिखित प्रमाण रामचरित मानस में भी है। बताया गया है कि जब भगवान राम सीता को ब्याहने जनकपुर पहुंचे तब वहां की महिलाओं ने उन्हें छेड़ते हुए गाली गीत गा कर स्वागत किया था। भगवान राम ने मिथिला की महिलाओं की इस गाली को मुस्कुराते हुए स्वीकार किया था। इससे जुड़ा एक पारंपरिक गीत भी है जिसे मिथिला में शादी के मौके पर अक्सर गाया जाता है। यह गीत कुछ इस तरह से है:

राम जी से पूछे जनकपुर की नारी,

बता द बबुआ लोगवा देत कहे गारी,

बता द बबुआ ॥

तोहरा से पुछूं मैं ओ धनुषधारी,

एक भाई गोर काहे एक काहे कारी,

बता द बबुआ लोगवा देत कहे गारी,

बता द बबुआ...

शादी में गाली देने के इस रिवाज को मिथिलांचल में डहकन के नाम से जाना जाता है। विवाह गारी की यह परंपरा जो बाहरी लोगों को अटपटी या आश्चर्यजनक लग सकती है वास्तव में गहरे सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक महत्व को समेटे हुए है।

विवाह गारी का समाजशास्त्र

सबसे पहले तो बता दें कि विवाह गारी और सामान्य गाली में बहुत फर्क होता है। शादी ब्याह के गाली गीतों का मकसद किसी को बेइज्जत करना या उसके मान-सम्मान के साथ खिलवाड़ करना नहीं, बल्कि हंसी-मजाक, चुहल तथा छेड़छाड़ के माध्यम से पारिवारिक उत्सवों को सरलता और तरलता प्रदान करना है। ये गीत न केवल हास्य पैदा करते हैं, बल्कि समारोह में एक जीवंत और उत्साहपूर्ण माहौल बनाते हैं। गाली गीतों की परंपरा के पीछे कई सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक कारण हैं, जो इसे यूपी-बिहार की शादियों में इतना लोकप्रिय बनाते हैं:

1. शादी के तनाव को कम करना

भारतीय संस्कृति में शादी को दो परिवार और समुदाय का मिलन माना जाता है। ये मिलन अक्सर सामाजिक तनाव और अपेक्षाओं को जन्म देता है। गाली गीत इसी तनाव को हल्का करने का काम करते हैं। मजाकिया लहजे में गालियां दोनों पक्षों के बीच हंसी-मजाक का माहौल बनाती हैं, जिससे औपचारिकता और संकोच कम होता है। विवाह गाली को लोग सोशल इंजीनियरिंग टूल की तरह इस्तेमाल करते हैं।

2. सहनशीलता की परीक्षा

भोजपुरी और मैथिली संस्कृति में इन गाली गीतों को अपमान के रूप में नहीं, बल्कि स्वागत और आतिथ्य के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। वर पक्ष को गालियां देना एक तरह से उनकी सहनशीलता और हास्यप्रियता की परीक्षा भी है। यह दिखाता है कि दोनों पक्ष एक-दूसरे के साथ सहज हैं।

3. महिलाओं की अभिव्यक्ति

शादी में लड़के वालों के लिए गाली गीत सिर्फ महिलाएं ही गाती हैं। दरअसल पहले के समय में स्त्रियां दिन रात घर-परिवार के कामकाज में उलझी रहती थीं। सोहर हो या फिर विवाह गारी लोकगीतों ने ही स्त्रियों को गीतों के जरिये आत्म-अभिव्यक्ति का मौका दिया। विवाह गारी महिलाओं की सामाजिक भागीदारी को बढ़ावा देती है।

4. कुरीतियों पर प्रहार

विवाह गारी दहेज प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों पर भी प्रहार करती है। शादी में वधू पक्ष की महिलाएं लड़के वालों को जो गालियां देती हैं उन गालियों में दहेज को लेकर बातें सुनाई जाती हैं और यह कहने का प्रयास होता है की शादी में दहेज ना लें और अगर दहेज लिया गया है तो इसका प्रतिकार भी करना चाहिए। इसी पर भोजपुरी का एक मशहूर गारी गीत है:

हथिया हथिया शोर कईले,

गदहो न तू लइले रे

धत तेरे कि मौगा समधी,

गउवां तू हसवइले रे….

5. उत्सव का माहौल बनाना

गारी गीत की जीवंत धुनें और मजाकिया बोल शादियों में उत्सव का माहौल भर देते हैं। चाहे हल्दी की रस्म हो या माड़ो हिलाई की, ये गीत सुनिश्चित करते हैं कि उत्सव का हर पल संगीत और उल्लास से भरा हो। उनकी जोशीली लय और चंचल स्वर ऐसा रंग भरते हैं कि शादी में मौजूद हर किसी के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है।

क्या है विवाह गारी का मनोविज्ञान

कुछ समाजशास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, गाली गीत सामाजिक मनोविज्ञान का हिस्सा हैं। ये गीत न केवल तनाव कम करते हैं, बल्कि सामाजिक बंधनों को मजबूत करने में भी मदद करते हैं। कुछ विद्वान इसे नियंत्रित आक्रामकता का रूप मानते हैं, जहां गालियां मजाक के रूप में दी जाती हैं, जिससे वास्तविक संघर्ष टल जाता है।

शादी में महिलाएं ही क्यों गाती हैं गारी

इंटरनेट पर मौजूद तमाम लोक कलाकारों की बातों को निचोड़ा जाए तो उनका मानना है कि लोकगीतों की जो परंपराएं हमारे पूर्वजों ने बनाई है उस हर परंपरा के पीछे किसी ना किसी तरह का सामाजिक मनोविज्ञान छिपा हुआ है। हमारे लोकगीतों की रचयिता ज्यादातर महिलाएं ही रही हैं। अगर उन्होंने रचना ना भी की हो तब भी उन्हें स्वरबद्ध करने और सुर-ताल में पिरोने का काम स्त्रियों ने ही किया है। पहले घर की चार दीवारियों में ही कैद रहने वाली महिलाएं आपस में बातचीत भी व्यंग से ही करती थीं। माना जाता है कि यहीं से लोकगीतों का जन्म हुआ। विवाह गारी भी उसी लोकपरंपरा का हिस्सा बन गई। जिस तरह से सोहर हो या फिर विदाई गीत, महिलाएं ही गाती हैं उसी प्रकार से विवाह गारी भी महिलाएं ही गाती हैं।

क्या यूपी बिहार की शादियों में ही गाते हैं गाली

शादी ब्याह में गाली गाने की परंपरा सिर्फ यूपी बिहार तक ही सीमित नहीं है। राजस्थान में राजपूत और मारवाड़ी समुदायों में गारी गीत गाए जाते हैं, जो मेहंदी या संगीत के दौरान दूल्हे को चिढ़ाते हैं। हरियाणा में जाट समुदाय रागिनी या बोलियां गाकर दूल्हे और बारात पर हंसी मजाक वाली गालियां देते हैं। पंजाब में सिख और हिंदू शादियों में टप्पे या बोलियां में मजाकिया गालियां शामिल होती हैं, खासकर जग्गो रस्म में। झारखंड में संथाल और मुंडा समुदायों में विदाई या मंडप रस्मों में चिढ़ाने वाले गीत गाए जाते हैं। उत्तराखंड में गढ़वाली और कुमाऊंनी शादियों में मंगल गीतों में हल्की गालियां शामिल होती हैं। कुमाऊं में विवाह गारी को बिटण कहते हैं।

गाली और गाली गीत में अंतर

गाली और गाली गीत में फर्क है। गाली आपको नकारात्मकता की ओर ले जाती है और गाली गीत आपको आपकी संस्कृति की ओर है। गाली हमारे संबंधों को तोड़ती है, जबकि गाली गीत हमारे संबंधों को जोड़ते हैं। इसलिए हमें इस बात का ख्याल रखना होगा कि हम क्या कर रहे हैं। आमतौर पर गाली गीत को लोग अपमान से जोड़ते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। गाली गीत कोई अपमान नहीं है। यह आज के जीवन को आनेवाली पीढ़ियों के जीवन से जोड़ता है। गाली-गीत हमारे संबंधों को पुख्ता करते है।

और अंत में..

गाली गीतों की परंपरा जो कभी शादियों का अभिन्न हिस्सा थी अब आधुनिकता और तकनीकी बदलावों के कारण काफी हद तक कमज़ोर हो गई है। गांवों में यह अभी भी कुछ हद तक जीवित है, लेकिन शहरों में डीजे और ऑर्केस्ट्रा ने इसकी जगह ले ली है। गीतों की भाषा, प्रस्तुति और सामाजिक स्वीकार्यता भी बदली है, और यह परंपरा अब कमर्शियल और सोशल मीडिया के प्रभाव में नए रूप में दिखाई देती है। फिर भी यह परंपरा सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा है और कुछ लोक गायकों और समुदायों के प्रयासों से इसे संरक्षित करने की कोशिश जारी है।

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Suneet Singh author

मैं टाइम्स नाऊ नवभारत के साथ बतौर डिप्टी न्यूज़ एडिटर जुड़ा हूं। मूल रूप से उत्तर प्रदेश में बलिया के रहने वाला हूं और साहित्य, संगीत और फिल्मों में म...और देखें

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