टीचर, डॉक्टर और वकील को गांव के लोग भगवान मानते थे, संविधान दिवस पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का इमोशनल स्पीच
सुप्रीम कोर्ट द्वारा आयोजित संविधान दिवस (Constitution Day) समारोह में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू (Draupadi Murmu) में दिल को छूने वाली बात कही। उन्होंने कहा कि मैं छोट गांव से आई हूं। जब मैंने जन्म लिया 1958 में, वहां कोई भी सुविधा नहीं थी। गांव के लोग टीचर, डॉक्टर और वकील को भगवान मानते थे।
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का इमोशनल भाषण
दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट द्वारा आयोजित संविधान दिवस (Constitution Day) समारोह में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू (Draupadi Murmu) ने कहा कि मैं एक छोटे से गांव से आई हूं। जब मैंने जन्म लिया 1958 में, वहां कोई भी सुविधा नहीं थी। हम गांव के लोग तीन लोगों को भगवान मानते थे-टीचर, डॉक्टर और वकील। गुरू मनुष्य नहीं साक्षात ईश्वर है। डॉक्टर को भगवान मानते थे। क्योंकि वो जीवनदाता हैं। डॉक्टर और वकील के पास बहुत बार लोग जाते हैं। जो दुख में और परेशानी में होते हैं। उनके पास धन दौलत जमीन जायदाद जो भी हो, देने के लिए तैयार हो जाते हैं ताकि हमें परेशानी से मुक्ति मिले।
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मुकदमेबाजी की अत्यधिक लागत को न्याय प्रदान करने में एक बड़ी बाधा के रूप में संदर्भित किया। उन्होंने कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका से लोगों की दुर्दशा को कम करने के लिए एक प्रभावी विवाद समाधान तंत्र विकसित करने का आग्रह किया।
संविधान दिवस संवैधानिक आदर्शों के प्रति हमारे दृढ़ पालन की पुष्टि करने का दिन है, क्योंकि ये ऐसे आदर्श हैं जिन्होंने देश को प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने में मदद की है। हमारे गणतंत्र की यह पहचान रही है कि तीनों अंगों ने संविधान द्वारा निर्धारित सीमाओं का सम्मान किया है।
सुप्रीम कोर्ट और कई अन्य अदालतों ने अपनी कार्यवाही का सीधा प्रसारण शुरू कर दिया है, जो न्याय के विस्तार में नागरिकों को प्रभावी हितधारक बनाने में भी एक लंबा रास्ता तय करेगा।
कानूनी भाषा, इसकी जटिल अभिव्यक्तियां और शब्दजाल अधिकांश लोगों के लिए चुनौतीपूर्ण होते हैं। हमें आशा करनी चाहिए कि वह दिन दूर नहीं जब कानूनी बिरादरी के बाहर के अधिक से अधिक लोग भी महत्वपूर्ण निर्णयों को पढ़ने में सक्षम होंगे।
मुझे अपने पूर्ववर्ती श्री राम नाथ कोविंद का उल्लेख करना चाहिए, जिन्होंने अक्सर न्याय की कीमत पर जोर दिया। न्याय पाने की प्रक्रिया को सभी के लिए वहनीय बनाने की जिम्मेदारी हम सभी की है।
मैं यह नोट कराना चाहूंगी कि आजादी के बाद से सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि हुई है, लेकिन संतुष्ट होने का कोई कारण नहीं है। मैं समझती हूं कि न्यायपालिका भी लैंगिक संतुलन बढ़ाने का प्रयास करती है।
जब पश्चिम के कुछ प्रमुख राष्ट्र अभी भी महिलाओं के अधिकारों पर बहस कर रहे थे, भारत में महिलाएं संविधान के निर्माण में भाग ले रही थीं।
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