Sep 25, 2024
हमला है चार सू दर-ओ-दीवार-ए-शहर का, सब जंगलों को शहर के अंदर समेट लो।
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इक अजब आमद-ओ-शुद है कि न माज़ी है न हाल, 'जौन' बरपा कई नस्लों का सफ़र है मुझ में।
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सारी गली सुनसान पड़ी थी बाद-ए-फ़ना के पहरे में, हिज्र के दालान और आँगन में बस इक साया ज़िंदा था।
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अब जो रिश्तों में बंधा हूं तो खुला है मुझ पर, कब परिंद उड़ नहीं पाते हैं परों के होते।
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हर शख़्स से बे-नियाज़ हो जा, फिर सब से ये कह कि मैं ख़ुदा हूँ।
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अब तो उस के बारे में तुम जो चाहो वो कह डालो, वो अंगड़ाई मेरे कमरे तक तो बड़ी रूहानी थी।
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ये वार कर गया है पहलू से कौन मुझ पर, था मैं ही दाएँ बाएँ और मैं ही दरमियाँ था।
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सारी गली सुनसान पड़ी थी बाद-ए-फ़ना के पहरे में, हिज्र के दालान और आँगन में बस इक साया ज़िंदा था।
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