Jun 1, 2024

'तन्हाइयों का जहर है और हम हैं दोस्तों..', बारिश की बूंदों से हैं मुनीर नियाज़ी के ये शेर

Suneet Singh

मेरी सारी ज़िंदगी को बे-समर उस ने किया, उम्र मेरी थी मगर उस को बसर उस ने किया।

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मोदी, मुगल और मुंगेर के लड्डू

मिलती नहीं पनाह हमें जिस ज़मीन पर, इक हश्र उस ज़मीं पे उठा देना चाहिए।

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चाहता हूँ मैं 'मुनीर' इस उम्र के अंजाम पर, एक ऐसी ज़िंदगी जो इस तरह मुश्किल न हो।

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अच्छी मिसाल बनतीं ज़ाहिर अगर वो होतीं, इन नेकियों को हम तो दरिया में डाल आए।

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मुझ से बहुत क़रीब है तू फिर भी ऐ 'मुनीर', पर्दा सा कोई मेरे तिरे दरमियाँ तो है।

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मैं हूँ भी और नहीं भी अजीब बात है ये, ये कैसा जब्र है मैं जिस के इख़्तियार में हूँ।

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ये अजनबी सी मंज़िलें और रफ़्तगाँ की याद, तन्हाइयों का ज़हर है और हम हैं दोस्तो।

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हस्ती ही अपनी क्या है ज़माने के सामने, इक ख़्वाब हैं जहाँ में बिखर जाएँ हम तो क्या।

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ज़मीं के गिर्द भी पानी ज़मीं की तह में भी, ये शहर जम के खड़ा है जो तैरता ही न हो।

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