Jun 8, 2024
'हम तो आवाज़ हैं दीवार से छन जाते हैं..', मजरूह सुल्तानपुरी के इन शेरों पर हार बैठेंगे दिल
Suneet Singh
कोई हम-दम न रहा कोई सहारा न रहा, हम किसी के न रहे कोई हमारा न रहा।
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PM को शाप देने वाला साधु
ग़म-ए-हयात ने आवारा कर दिया वर्ना, थी आरज़ू कि तिरे दर पे सुब्ह ओ शाम करें।
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जफ़ा के ज़िक्र पे तुम क्यूं संभल के बैठ गए, तुम्हारी बात नहीं बात है ज़माने की।
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बहाने और भी होते जो ज़िंदगी के लिए, हम एक बार तिरी आरज़ू भी खो देते।
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बचा लिया मुझे तूफ़ां की मौज ने वर्ना, किनारे वाले सफ़ीना मिरा डुबो देते।
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ज़बां हमारी न समझा यहां कोई 'मजरूह', हम अजनबी की तरह अपने ही वतन में रहे।
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रोक सकता हमें ज़िंदान-ए-बला क्या 'मजरूह', हम तो आवाज़ हैं दीवार से छन जाते हैं।
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अब कारगह-ए-दहर में लगता है बहुत दिल, ऐ दोस्त कहीं ये भी तिरा ग़म तो नहीं है।
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मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर, लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया।
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