Oct 13, 2023
भारत में पश्चिम बंगाल की दुर्गा पूजा विश्व प्रसिद्ध कही जाती है। प्रतिवर्ष बंगाल की दुर्गा पूजा और यहां के दुर्गा पंडाल की भव्यता को देखने के लिए देश विदेश से लाखों भक्त आते हैं।
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लेकिन क्या आपको पता है कि, बंगाल में पहली बार दुर्गा पूजा का भव्य अयोजन कब हुआ था और कैसे इसकी परंपरा शुरू हुई थी। आज हम आपको इसकी पूरी कहानी बताएंगे..
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हमारी सहयोगी वेबसाइट नवभारत टाइम्स के मुताबिक, 16वीं शताब्दी के अंत में 1576 ई में पहली बार दुर्गापूजा हुई थी। ताहिरपुर (आज बांग्लादेश) में राजा कंस नारायण ने दुर्गा की पूजा की शुरुआत की थी। कुछ अन्य विद्वान दुर्गा पूजा का श्रेय मनुसंहिता के टीकाकार कुलुकभट्ट के पिता उदयनारायण को देते हैं।
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कलकत्ता में 1610 में पहली बार बड़िशा (बेहला साखेर का बाजार क्षेत्र) के राय चौधरी परिवार के आठचाला मंडप में दुर्गा पूजा का आयोजन हुआ था। उस समय कलकत्ता एक गांव था जिसका नाम 'कोलिकाता' था।
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जानकार बताते हैं कि, राजा कंसनारायण ने प्रजा की राज्य विस्तार व प्रजा की खुशहाली के लिए अश्वमेघ यज्ञ की कामना की थी। तब पुरोहितों ने उन्हें इसकी जगह दुर्गापूजा महात्मय का बताया और कहा कि, कलियुग में महिषासुरमर्दिनी मां दुर्गा की पूजा करें। पुरोहितों की सलाह पर राजा ने दुर्गा पूजा की शुरू की और ये परंपरा चल पड़ी।
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विद्वान और विचारक बताते हैं कि कंसनारायण की पूजा के पहले दुर्गापूजा की व्याख्या देवी भागवतपुराण और दुर्गा सप्तशती में मिलती है। देवी भागवतपुराण में बताया गया है कि सतयुग में भगवान राम ने लंका जाने से पहले शक्ति के लिए देवी मां दुर्गा की पूजा की थी।
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बंगाल में 550 साल से अधिक पुरानी पूजा की विधियों में समय के साथ-साथ परिवर्तन होता रहा। विद्वानों की मानें तो कालिकापुराण की विधि के अनुसार पहली विधि है। दूसरी विधि वृहतनंदीकेश्वर, तीसरी देवीपुराण और चौथी व आखिरी विधि मत्स्य पुराण के अनुसार है। हालांकि मूल विधियों में कोई बदलाव नहीं है।
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बताया जाता है कि बंगाल में पारंपरिक दुर्गापूजा भाद्र मास के कृष्णपक्ष की नवमी को ही शुरू हो जाती है। कोलकाता के शोभाबाजार राजबाड़ी, बांकुड़ा जिले के विष्णुपुर के प्रसिद्ध राजपरिवार में भी तभी से दुर्गा पूजा की शुरुआत होती है। षष्ठी में मां दुर्गा का आह्वान कर बेल के पेड़ की पूजा होती है।
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durga puja celebration in bengal starting history and facts सप्तमी पर नवपत्रिका पूजा होती है जिसके बाद गंगा में स्नान करवाया जाता है। इसमें मां दुर्गा के नौ रूपों की प्रकृति की शक्ति स्वरूपा पूजा होती है। अष्टमी और नवमी में संधि पूजा होती है। फिर दशमी के दिन पारंपरिक तरीके से माता दुर्गा का विसर्जन होता है।
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