बिहार विधानसभा चुनाव 2025। तस्वीर-टाइम्स नाउ नवभारत डिजिटल।
Bihar Assembly Election 2025 : सड़क, बिजली, पानी, रोजगार, महंगाई, भ्रष्टाचार, अपराध, सुशासन और विकास ऐसे मुद्दे हैं जिन पर भारत में चुनाव लड़े जाते हैं लेकिन इन सभी मुद्दों के बीच एक ऐसा मुद्दा है जो सब पर भारी पड़ जाता है। वह है जाति। जाति का मुद्दा ऐसा है जिसे कोई भी राजनीतिक दल नजरंदाज नहीं कर सकता। या कहिए कि पार्टियां जातियों में अपनी पैठ के हिसाब से अपना चुनावी समीकरण तैयार करती हैं। भारत में इसे वोट बैंक की राजनीति कहा जाता है। पार्टी में एक जाति या समुदाय के नेता को अपने जाति-समुदाय का चेहरा माना जाता है। मोटे तौर पर जाति के लोग अपने समुदाय के नेता के साथ एक जुड़ाव और उस पर गर्व महसूस करते हैं। जाति की यह जकड़न पूरब से लेकर पश्चिम और उत्तर से लेकर दक्षिण तक भारतीय राजनीति पर हावी है। बिहार की राजनीति में यह ज्यादा प्रखर है। यहां जाति का मुद्दा बाकी सभी मुद्दों पर भारी पड़ जाता है। यहां हम बिहार की जनसंख्या में जातियों की हिस्सेदारी के बारे में चर्चा करेंगे।
बिहार में अत्यंत पिछड़ा वर्ग की आबादी करीब 36 प्रतिशत है। इसमें लगभग 112 जातियां हैं। ओबीसी और अनुसूचित जातियों के बीच यह जाति राजनीतिक रूप से काफी सशक्त मानी जाती है। इस अत्यंत पिछड़े वर्ग में मुस्लिम आबादी भी है। इससे मुस्लिम समुदाय को यदि अलग कर दिया जाए तो ईबीसी का प्रतिशत 26 प्रतिशत हो जाता है। बिहार में इस ईबीसी में आने वाली जातियों को लुभाने का प्रयास हर दल करता आया है। लेकिन माना जाता है कि इस ईबीसी का एक बड़ा हिस्सा नीतीश कुमार की पार्टी जद-यू के साथ है।
इस राज्य में जातियों की हदबंदी का जो सिलसिला कर्पूरी ठाकुर के दौर में शुरू हुआ, उसने लालू प्रसाद यादव के समय गति पकड़ी। कुर्मी, कुशवाहा और वैश्य जातियां जो कि राज्य में यादवों के बढ़े प्रभुत्व से खुश नहीं थी वो अपने लिए एक अलग राजनीतिक संरक्षण एवं विकल्प की तलाश करने लगीं। इन जातियों की छटपटाहट को लेकर नीतीश कुमार ने अलग व्यूह रचना शुरू की। इन जातियों के बीच अपनी पैठ और पहुंच बनाने के लिए ही नीतीश ने पंचायत चुनाव में इनके लिए सीटें आरक्षित कर दीं। बिहार में हिंदुओं की आबादी 82 प्रतिशत है। मुस्लिमों की 17.7 प्रतिशत और अन्य तीन प्रतिशत हैं। इस अन्य में बौद्ध, ईसाई, सिख, जैन हैं।
बिहार में मुस्लिम आबादी उच्च जाति, बीसी, ईबीसी और एससी में विभाजित है। हालांकि, ज्यादातर मुस्लिम आबादी ओबीसी और ईबीसी श्रेणी में आती है। बिहार में मुस्लिम एक समुदाय के रूप में किसी विशेष दल को चुनता आया है। ध्रुवीकरण होने पर मुस्लिमों में लामबंदी और तेज होती है। पिछले चुनाव में यह देखा गया कि सीमांचल इलाके में ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने मुस्लिम वोट जो कि परंपरागत रूप से राजद का वोट बैंक माना जाता है, उसमें सेंध लगाने में कामयाबी पाई। 2020 के विधानसभा चुनाव में ओवैसी की पार्टी ने सीमांचल में पांच सीटें जीतीं। ओवैसी ने यहां राजद को बड़ा झटका दिया लेकिन इस बार राजद मुस्लिम वोटों का बिखराव रोकने के लिए विशेष रणनीति पर काम कर रही है। अगर ऐसा होता है कि इस बार मु्स्लिम आबादी में सेंध लगाना ओवैसी के लिए काफी मुश्किल होगा।
बिहार में यादव जाति की आबादी 14.3 प्रतिशत है जो कि जातियों में सबसे बड़ा ब्लॉक है। यादव समाज खुद को राजद के साथ रखता आया है और लालू यादव को आज भी अपना नेता मानता है। अब यह जाति लालू के बेटे तेजस्वी के साथ है। राजद का मुस्लिम-यादव (एम-वाई फॉर्मूला) राजद को सत्ता तक पहुंचाने में बड़ी भूमिका निभाता आया है। इस गठजोड़ को जिताऊ माना जाता है। बावजूद इसके यादव जाति बिखराव से खुद को बचा नहीं पाई है। यादवों में एक तबका ऐसा भी है जो राज्य में कानून-व्यवस्था, भ्रष्टाचार और कुशासन को ध्यान में रखकर वोट देता आया है।
बिहार में हिंदू सवर्ण जातियों जिसमें ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार और कायस्थ आती हैं, इनकी आबादी करीब 15.5 प्रतिशत है। बिहार की राजनीति में इनका शुरू से बोलबाला और दबदबा रहा है। अन्य पिछड़ा वर्ग के उभार से पहले ये जातियां ही बिहार की सत्ता और प्रशासन को संभालती रही हैं। आजादी के बाद लंबे समय तक इस वर्ग का झुकाव कांग्रेस पार्टी की ओर रहा लेकिन कांग्रेस के कमजोर होने और गरीबों-पिछड़े के नेता के रूप में लालू यादव के उभरने के बाद ये जातियां भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ आ गईं। तब से सवर्ण जातियां BJP के साथ हैं। यह वर्ग भाजपा का एक बड़ा वोट बैंक है।
बिहार की कुर्मी और कुशवाहा जातियों के गठजोड़ को‘लव-कुश समीकरण’ कहा जाता है। यादवों की तरह ये दोनों जातियां भी अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) में आती हैं। एक समय ये जातियां सवर्ण जातियों के वर्चस्व को चुनौती देती थीं लेकिन, लालू यादव के शासनकाल में यादव समुदाय के वर्चस्व (यादव राज) से परेशान होकर इन जातियों ने आरजेडी को समर्थन देना बंद कर दिया। इस असंतोष का फायदा उठाते हुए कुर्मी जाति से आने वाले नीतीश कुमार ने कुर्मी और कुशवाहा को मिलाकर ‘लव-कुश’ नाम का एक मजबूत सामाजिक आधार तैयार किया। इस समीकरण ने उन्हें एक दशक से अधिक समय तक बिहार की राजनीति में मजबूत बनाए रखा।
बिहार में पासवान और दुसाध जातियां दलित समुदाय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। ये पारंपरिक रूप से रामविलास पासवान के प्रति वफादार रही हैं और उनकी पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी का प्रमुख आधार हैं। अब ये जातियां रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान के साथ हैं। एलजेपी ने 2020 के विधानसभा चुनाव में अपनी राजनीतिक शक्ति का भरपूर प्रदर्शन किया था। एलजेपी ने कई सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करके नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड के उम्मीदवारों को भारी नुकसान पहुंचाया। चिराग की वजह से जेडीयू सिर्फ 43 सीटों पर सिमट गई थी। इस चुनाव से स्पष्ट हुआ कि पासवान-दुसाध वोट बैंक किसी भी गठबंधन के लिए जीत-हार का अंतर तय करने की क्षमता रखता है।
बिहार में रविदास या चमार समुदाय की आबादी लगभग 5 फीसदी है, जो पासवान समुदाय के लगभग बराबर है। पासवान समुदाय के विपरीत, इस समुदाय के वोटों में उतनी मजबूत एकजुटता या केंद्रीय नेतृत्व का अभाव है। ऐतिहासिक रूप से, इनके वोट अलग-अलग दलों में बंटते रहे हैं। ये भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले), कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को समर्थन देते रहे हैं। कई विधानसभा क्षेत्रों में ये राष्ट्रीय जनता दल और उसके सहयोगियों का भी समर्थन करते हैं। राजद और उसके सहयोगी दल इस बड़े वोट बैंक में अपनी पैठ (मजबूत पकड़) बनाने और उनके समर्थन को स्थायी करने की लगातार कोशिश में रहते हैं।
बिहार में मुसहर समुदाय अनुसूचित जातियों में से एक है और इसे सबसे गरीब और वंचित समुदायों में गिना जाता है। इनकी आबादी करीब 3.1 फीसदी है। यह समुदाय पारंपरिक रूप से अपने सबसे बड़े और प्रभावशाली नेता जीतन राम मांझी और हिंदुस्तान आवाम पार्टी का खुलकर समर्थन करता है। मांझी की पार्टी जिस भी गठबंधन में रहती है, मुसहर वोट बड़ी संख्या में उसी ओर जाते हैं।
बिहार में वैश्य समुदाय की कुल आबादी लगभग 13.1 फीसदी है। यह समुदाय मुख्य रूप से कारोबार से जुड़ा हुआ है। वैश्य समुदाय में कई उप-जातियां शामिल हैं, जैसे तेली (लगभग 2.8%) और कानू (लगभग 2.2%). ये उप-जातियां (जैसे तेली और कानू) अति पिछड़ा वर्ग श्रेणी में भी आती हैं। वैश्य पारंपरिक रूप से भारतीय जनता पार्टी के समर्थक रहे हैं। गांवों में रहने वाले या आर्थिक रूप से कमजोर वैश्य जो ईबीसी श्रेणी में आते हैं, पहले अन्य ओबीसी जातियों के साथ मिलकर वोट देते थे। हालांकि, हाल के वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मजबूत समर्थन के कारण वैश्य समुदाय का एक बड़ा हिस्सा (जिसमें ईबीसी उप-जातियां भी शामिल हैं) अब बीजेपी और एनडीए गठबंधन के समर्थन में लामबंद हुआ है।
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