दिल्ली के पुराने किले का इतिहास
Old Fort Delhi History: भारत को किलों का देश इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसकी भौगोलिक विशालता, विभिन्न साम्राज्यों का शासन और लंबे समय तक चले संघर्षों ने रक्षात्मक ढांचों की आवश्यकता पैदा की। प्राकृतिक सुरक्षा के साधन जैसे कि पहाड़ और घने जंगल के साथ राजनीतिक अस्थिरता और सैन्य जरूरतों ने गिरि दुर्ग, जल दुर्ग और वन दुर्ग जैसी संरचनाओं के निर्माण को प्रोत्साहित किया। भारत में किलों की संख्या का सही अनुमान लगाना मुश्किल है, लेकिन विभिन्न स्रोतों के अनुसार छोटे-बड़े किलों की संख्या लगभग 500 से 571 के बीच बताई जाती है, जबकि कुछ रिपोर्टों में 4,000 से अधिक किलों और महलों का उल्लेख मिलता है। महाराष्ट्र में किलों की संख्या सबसे अधिक है, जहां 350 से अधिक किले स्थित हैं। भारत की इसी महान पृष्ठभूमि में एक ऐसा किला भी है जो महाभारत काल से लेकर मुगल और ब्रिटिश शासन तक के दौर का साक्षी रहा। इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह किला कितना प्राचीन है। आज भी यह किला अपनी भव्यता और शान-ओ-शौकत से दर्शनीय है। भले ही यह अब वीरान नजर आता हो लेकिन सदियों तक यह एक पूरे शहर की धड़कन रहा है। तो आइए जानते हैं इस दिलचस्प किले के बारे में।
दिल्ली का पुराना किला एक प्राचीन स्मारक है, जिसकी उम्र सदियों पुरानी है और यह वर्तमान में नई दिल्ली के दक्षिण-पश्चिमी हिस्से में स्थित है। दिल्ली का यह किला कई भव्य और अद्वितीय संरचनाओं से सज्जित है, जो समय की चुनौतियों के बावजूद अपने स्थान पर मजबूती से खड़ा है। कुछ इतिहासकारों ने इसे रोम के सात पहाड़ों और दिल्ली के सात शहरों के बीच समानताओं के रूप में देखा है क्योंकि दोनों ही शहरों पर कई शासकों का शासन रहा और समय-समय पर उनका निर्माण और पुनर्निर्माण हुआ। आज पुराना किला एक विशाल परिसर के रूप में मौजूद है, जो लगभग 300 एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है। यह किला कभी यमुना नदी से जुड़े एक चौड़े खंदक से घिरा हुआ था, जिसमें पानी किले की पूर्वी दीवारों तक पहुंचता था। माना जाता है कि मूल संरचना में अब केवल कुछ ही स्मारक सुरक्षित रूप से बचे हुए हैं।
पुराने किले की खुदाई के दौरान विभिन्न प्रकार के बर्तन और मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। दैनिक भास्कर की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के निदेशक वसंत स्वर्णकर ने बताया कि साइट से पेंटेड ग्रे वेयर (PWG) संस्कृति से जुड़े बर्तन मिले हैं। इसके अलावा, विष्णु, गजलक्ष्मी और भगवान गणेश की प्राचीन मूर्तियां भी प्राप्त हुई हैं। PWG संस्कृति उत्तर भारत की प्राचीन संस्कृति है, जो लोहे और तांबे के उपयोग से जुड़ी हुई मानी जाती है। खुदाई में मिले बर्तनों पर काले रंग के धब्बे दिखाई दे रहे हैं और वर्तमान में प्राप्त वस्तुएं इसी PWG संस्कृति से संबंधित बताई जा रही हैं। इस संस्कृति की जानकारी सबसे पहले 1940 से 1944 के बीच सामने आई थी। माना जाता है कि यह संस्कृति 1100 से 800 ईसा पूर्व की थी, जो महाभारत युद्ध के समय के आसपास आती है। कहा जाता है कि इसी क्षेत्र में पांडवों की राजधानी इंद्रप्रस्थ स्थित थी। साल 1952 में प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता बीबी लाल ने हस्तिनापुर में भी खुदाई की थी, जहां प्राप्त वस्तुएं भी PWG संस्कृति से जुड़ी हुई बताई गई थीं।
पुराने किले का इतिहास मुगलों से गहरा जुड़ा हुआ है। बादशाह हुमायूं ने इसे अपने नए शहर 'दीनपनाह' के आंतरिक किले के रूप में बनवाना शुरू किया। 1533 में हुमायूं ने शहर और किले का निर्माण कार्य आरंभ किया, जो 1538 से 1545 के बीच पूरी तरह से विकसित हुआ। 1540 में शेरशाह सूरी ने हुमायूं को हराकर दिल्ली पर कब्जा कर लिया और इस किले का नाम बदलकर 'शेरगढ़' रख दिया। शेरशाह ने हुमायूं द्वारा बनाए गए किले और शहर में कई नई इमारतें जोड़कर इसे और बड़ा किया। बाद में हुमायूं ने शेरशाह के पुत्र से शहर वापस जीतकर इसे पूरा करने की कोशिश की। दुर्भाग्यवश, 1556 में हुमायूं की मृत्यु इसी किले में स्थित 'शेर मंडल' पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिरने के कारण हुई।
ब्रिटिश शासन के दौरान, पुराना किला नई दिल्ली के सेंट्रल विस्टा से जुड़ा हुआ था। नई राजधानी के डिजाइनर एडविन लुटियंस ने सेंट्रल विस्टा को पुराने किले के हुमायूं दरवाजे से जोड़ने का प्रावधान किया था, जिससे ऐतिहासिक किले और नई दिल्ली के आधुनिक हिस्से के बीच एक सामंजस्य स्थापित हो सके। इस दौरान, पुराना किला जापानी नागरिकों के लिए एक नज़रबंदी शिविर के रूप में इस्तेमाल किया गया। ब्रिटिश प्रशासन ने यहां रहने वाले जापानी नागरिकों को नियंत्रित और सुरक्षित रखने के लिए यह कदम उठाया था। 1947 में भारत के विभाजन के समय, पुराना किला और पास का हुमायूं का मकबरा मुसलमान शरणार्थियों के लिए अस्थायी शरणस्थल बन गए। शुरुआती चरण में, पाकिस्तान जाने वाले सरकारी कर्मचारी और अन्य मुसलमान शरणार्थी किले में ठहरे। सितंबर 1947 तक भारत सरकार ने इन शिविरों का प्रबंधन अपने हाथ में ले लिया था, और तब तक लगभग 1.5 से 2 लाख शरणार्थी किले में आ चुके थे। यह शरणार्थी शिविर 1948 की शुरुआत तक सक्रिय रहा, क्योंकि पाकिस्तान जाने वाली ट्रेनों का संचालन अक्टूबर 1947 तक शुरू नहीं हुआ था।
पुराने किले की भव्यता का अंदाजा इसके तीन प्रमुख प्रवेशद्वारों से लगाया जा सकता है। वर्तमान में, किले में प्रवेश करने का मुख्य रास्ता केवल इसका बड़ा दरवाजा ही है। यह दरवाजा मजबूती से बना हुआ है और दोनों ओर विशाल बुर्ज स्थित हैं। प्रवेशद्वार का निर्माण लाल बलुआ पत्थर से हुआ है, जिसमें सफेद और काले-सूखड़े संगमरमर की सजावट है, जबकि बुर्ज पत्थरों और मलबे से निर्मित हैं। दरवाजे और बुर्जों में तीर चलाने के लिए बने कई खांचे भी देखे जा सकते हैं। हुमायूं दरवाजा किले का दक्षिणी प्रवेशद्वार है। यह दो मंज़िला संरचना एक ऊंचे मेहराब से विभाजित है। परिसर के उत्तर में स्थित तीसरा प्रवेशद्वार तलाकी दरवाजा या निषिद्ध दरवाज़ा कहलाता है। इसका नाम दिलचस्प कहानियों से जुड़ा है। एक कथा के अनुसार, यह दरवाज़ा एक रानी से जुड़ा था, जिसने अपने पति की रणभूमि से विजयी लौटने तक इसे बंद रखने की कसम खाई थी। राजा के मारे जाने के बाद यह दरवाज़ा हमेशा के लिए बंद रह गया। तलाकी दरवाजा दो हिस्सों में विभाजित है- ऊपरी और निचला। ऊपरी द्वार, जो भव्य सजावट वाला था, मुख्य द्वार था, जबकि निचला द्वार कभी खंदक के स्तर पर खुलता था।
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